जीमूतवाहन और शंखचूड़ की कथा

रूद्रकिंकर वैतालने राजा विक्रमादित्य से कहा – महाराज ! कान्यकुब्ज (कन्नौज) में दानशील, सत्यवादी एवं देवी-पूजनमें तत्पर एक ब्राह्मण रहता था | वह प्रतिग्रह से प्राप्त द्रव्य का दान कर देता था | एक बार शारदीय नवदुर्गा का व्रत आया | उसे दान में कुछ भी द्रव्य प्राप्त नहीं हो सका, अत: वह बहुत चिंतित हो गया, सोचने लगा, कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मुझे द्रव्य की प्राप्ति हो | मैंने दुर्गा-पूजामें कन्याओं को निमंत्रित किया है, अब उन्हें कैसे भोजन कराऊँगा | वह इसी चिंता में निमग्न हो रहा था कि देवी की कृपासे उसे अनायास पाँच मुद्राएँ प्राप्त हो गयी और उसीसे उसने व्रत सम्पन्न किया | उसने नौ दिनोंतक निराहार व्रत किया था | उस व्रतके प्रभाव से मरकर उसने देवस्वरूप को प्राप्त किया | फलत: वह विद्याधरों का स्वामी जीमूतकेतु हुआ | वह हिमालय पर्वत के रम्य स्थान में रहता था | वहाँ वह भक्तिपूर्वक कल्पवृक्ष की पूजा भी करता था | उस वृक्ष के प्रभाव से उसे सभी कलाओं में कुशल जीमूतवाहन नामका एक पुत्र हुआ |
पूर्वजन्म में वह जीमूतवाहन मध्यप्रदेश का शूरसेन नामक राजा था | किसी समय वह राजा शूरसेन आखेट के लिये महर्षि वाल्मीकि की निवासभूमि उत्पलावर्त नामक वन में आया | वहाँ चैत्र शुक्ला नवमी को उसने विधिवत रामजन्म का श्रीरामनवमी उत्सव किया | उसने महर्षि वाल्मीकि की कुटीमें रात्रि-जागरण भी किया | राममयी गाथा के श्रवणजन्य पुण्य के प्रभाव से वह शूरसेन राजा ही जीमूतकेतु के पुत्र-रूप में जीमूतवाहन नामक विद्याधर हुआ |
उस महात्मा जीमूतवाहन ने भी कल्पवृक्ष की श्रद्धापूर्वक वर माँगने को कहा | इसपर जीमूतवाहन ने कहा –‘महावृक्ष !मेरा नगर आपकी कृपासे धन-धान्य-सम्पन्न हो जाय | कल्पवृक्ष ने नगर को पृथ्वी में सर्वश्रेष्ठ कर दिया | वहाँ कोई भी ऐसा नहीं था जो कल्पवृक्ष के प्रभाव से राजा के समान न हो गया हो | अनन्तर वे पिता और पुत्र दोनों तपस्या के लिये वनमें चले गये और अतिशय रमणीय मलयाचलपर कठोर तपस्या करने लगे |
राजन ! एक दिन राजा मलयध्वज की पुत्री कमलाक्षी शिव की पूजा के लिये अपनी सखियों के साथ शिव-मंदिर में आयी | उसीसमय जीमूतवाहन भी पूजाके लिये मंदिर में पहुँचा | सभी अलंकारों से अलंकृत दिव्य राजकन्या को देखकर उसे प्राप्त करने की इच्छा जीमूतवाहन को जाग्रत हुई तथा इसके लिये उसने प्रार्थना भी की | अंत में कन्या के पिता मलयध्वज ने जीमूतवाहन से उसका विवाह करा दिया |
राजा मलयध्वज का पुत्र विश्वावसु एक दिन अपने बहनोई जीमूतवाहन के साथ गंधमादन पर्वतपर गया | वहाँ उसने नर-नारायण को प्रणाम किया | उसी शिखरपर भगवान विष्णु का वाहन गरुड आया | उससमय शंखचूड़ नाग की माता, जहाँ जीमूतवाहन था वहाँ विलाप कर रही थी | स्त्री के करुणक्रन्दन को सुनकर दीनवत्सल जीमूतवाहन दु:खी होकर शीघ्र ही वहाँ पहुँचा | वृद्धा को आश्वासन देकर उसने पूछा – ‘तुम क्यों रो रही हो ? तुम्हें क्या कष्ट है ?’ वह बोली –‘देव ! आज मेरा पुत्र गरुड़ का भक्ष्य बनेगा, उसके वियोग के कारण दुःख से व्याकुल होकर मैं रो रही हूँ |’ यह सुनकर राजा जीमूतवाहन गरुड़-शिखरपर गया | गरुड उसे अपना भक्ष्य समझकर पकड़कर आकाश में ले गया } जीमूतवाहन की पत्नी कमलाक्षी आकाश में गरुड के द्वारा भक्षण किये जाते हुए अपने पति को देखकर दुःख से रोने लगी | परन्तु बिना कष्ट के खाये जाते उस जीमूतवाहन को मानव-रूप में देखकर गरुड डर गया और जीमूतवाहन से कहने लगा –‘तुम मेरे भक्ष्य क्यों बन गये ?’ इसपर उसने कहा – ‘शंखचूड़ नाग की माता बड़ी दु;खी थी, उसके पुत्र की रक्षा के लिये मैं तुम्हारे पास आया |’ जब यह घटना शंखचूड़ नाग को मालुम हुई तो दु:खी होकर वह शीघ्र ही गरुड़ के पास आया और कहने लगा – ‘कृपासागर ! आपके भोजन के लिये मैं उपस्थित हूँ | महामते ! इस दिव्य मनुष्य को छोडकर मुझे अपना आहार बनाइये |’ जीमूतवाहन की महानता और परोपकार की भावना देखकर गरुड अत्यंत प्रसन्न हो गया और उसने विद्याधर जीमूतवाहन को तीन वर दिये | ‘अब मैं आगेसे कभी शंकचूड के वंशजो को नहीं खाऊँगा | श्रेष्ठ जीमूतवाहन ! तुम विद्याधरों की नगरी में श्रेष्ठ राज्य प्राप्त करोगे |’ इतना कहकर गरुड अन्तर्हित हो गया और जीमूतवाहन ने पितासे राज्य प्राप्त किया तथा अपनी पत्नी कमलाक्षी के साथ राज्य-सुख भोगकर अन्तमें वह वैकुण्ठलोक को चला गया |
वैतालने राजासे पूछा – भूपते ! अब आप बताइये कि शंखचूड़ तथा जीमूतवाहन – इन दोनों में किसको महान फल प्राप्त हुआ और दोनों में कौन अधिक साहसी था ?
राजा बोला – वैताल ! शंखचूड़ को ही महान फल प्राप्त हुआ; क्योंकि उपकार करना तो राजा का स्वभाव ही होता है | राजा जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के लिये यद्यपि अपना जीवन देकर महान त्याग एवं उपकार किया, उसी के फलस्वरूप गरुड ने प्रसन्न होकर उसे राज्य एवं वैकुण्ठ-प्राप्ति का वर प्रदान किया, तथापि राजा होने से जीमूतवाहन का जीवन-दान (नागकी रक्षा करना) कर्तव्यकोटि में आ जाता हैं | अत: उसका त्याग शंखचूड़ के त्याग एवं साहस के सामने महत्त्वपूर्ण नहीं प्रतीत होता, परन्तु शंखचूड़ ने निर्भय होकर अपने शत्रु गरुड को अपना शरीर समर्पित कर एक महान धर्मात्मा राजा के प्राण बचाये थे | अत: शंखचूड़ ही सबसे बड़े फलका अधिकारी प्रतीत होता है | वैताल राजा के इस उत्तर से संतुष्ट हो गया |