शुक्राचार्य की घोर तपस्या और इनका शिवजी को चित्ररत्न अर्पण करना तथा अष्टमृर्त्यष्टक – स्तोत्रद्वारा उनका स्तवन करना, शिवजी का प्रसन्न होकर मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना

शुक्राचार्य की घोर तपस्या और इनका शिवजी को चित्ररत्न अर्पण करना तथा अष्टमृर्त्यष्टक – स्तोत्रद्वारा उनका स्तवन करना, शिवजी का प्रसन्न होकर मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना
सनत्कुमारजी कहते है – व्यासजी ! मुनिवर शुक्राचार्य को शिव से मृत्यंजय नामक मृत्युका प्रशमन करनेवाली परा विद्या किस प्रकार प्राप्त हुई थी, अब उसका वर्णन करता हूँ; सुनो | पूर्वकाल की बात है, इन भृगुनन्दन ने वाराणसीपूरी में जाकर प्रभावशाली विश्वनाथ का ध्यान करते हुए बहुत कालतक घोर तप किया था | वेदव्यासजी ! उस समय उन्होंने वहीँ एक शिवलिंग की स्थापना की और उसके सामने ही एक परम रमणीय कूप तैयार कराया | फिर प्रयत्नपूर्वक उन देवेश्वर को एक लाख बार द्रोणभर पंचामृत से तथा बहुत-से सुगन्धित द्रव्यों से स्नान कराया | फिर एक हजार बार परम प्रीतिपूर्वक चन्दन, वक्षकर्दम [ एक प्रकार का अंग-लेप, जो कपूर, अगुरु, कस्तुरी को मिलाकर बनाया जाता है ] और सुगन्धित उबटन का उस लिंगपर अनुलेप किया | तत्पश्चात सावधानी के साथ परम प्रेमपूर्वक राजचम्पक (अमलतास), धतुर, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदम्ब, मौलसिरी, उत्पल, मल्लिका (चमेली), शतपत्री, सिंधुवार, ढाक, बन्धुकपुष्प (गुलदुपहरी), पुंनाग, नागकेशर, केसर, नवमल्लिक (बेलमोगरा), चिबिलिक (रक्तदला), कुंद (माघपुष्प), मुचुकुन्द (मोतिया), मन्दार, बिल्वपत्र, गूमा, मरुवृक (मरुआ), वृक (धुप), गँठिवन, दौना, अत्यंत सुंदर आमके पल्लव, तुलसी, देवजवासा, बृहत्पत्री, कुशांकू, नंदावर्त (नांदरुख), अगस्त्य, साल, देवदारु, कचनार, कुरबक (गुलखेरा ), दुर्वांकुर, कुरंटक (करसैला) – इनमें से प्रत्येक के पुष्पों और अन्य पल्लवों से तथा नाना प्रकार के रमणीय पत्रों और सुंदर कमलों से शंकरजी की विधिवत अर्चना की | उन्हें बहुत-से उपहार समर्पित किये | तथा शिवलिंग के आगे नाचते हुए शिवसहस्त्रनाम एवं अन्यान्य स्तोत्रों का गान करके शंकरजी का स्तवन किया | इस प्रकार शुक्राचार्य पाँच हजार वर्षोतक नाना प्रकार के विधि-विधान से महेश्वर का पूजन करते रहे; परन्तु जब उन्हें थोडा-सा भी वर देने के लिये उद्यत होते नहीं देखा, तब उन्होंने एक-दूसरे अत्यंत दुस्सह एवं घोर नियमका आश्रय लिया | उससमय शुक्र ने इन्दिर्योंसहित मन के अत्यंत चंचलतारूपी महान दोष को बारंबार भावनारूपी जल से प्रक्षालित किया | इस प्रकार चित्तरत्न को निर्मल करके उसे पिनाकधारी शिव के अर्पण कर दिया और स्वयं घूमकण का पान करते हुए तप करने लगे | इसप्रकार उनके एक सहस्त्र वर्ष और बीत गये | तब भृगुनन्दन शुक्र को यों दृढ़चित्त से घोर तप करते देखकर महेश्वर उनपर प्रसन्न हो गये | फिर तो दक्षकन्या पार्वती के स्वामी साक्षात् विरूपाक्ष शंकर, जिनके शरीर की कान्ति सहस्त्रों सूर्यों से भी बढकर थी, उस लिंग से निकलकर शुक्र से बोले |
महेश्वर ने कहा – महाभाग भृगुनन्दन ! तुम तो तपस्या की निधि हो | महामुने ! मैं तुम्हारे इस अविच्छिन्न तप से विशेष प्रसन्न हूँ | भार्गव ! तुम अपना सारा मनोवांछित वर माँग लो | मैं प्रीतिपूर्वक तुम्हारा सारा मनोरथ पूर्ण कर दूँगा | अब मेरे पास तुम्हारे मनोरथ पूर्ण कर दूँगा | अब मेरे पास तुम्हारे लिये कोई वस्तु अदेय नहीं रह गयी है |
सनत्कुमारजी कहते हैं– मुने ! शम्भु के इस परम सुखदायक एवं उत्कृष्ट वचन को सुनकर शुक्र प्रसन्न हो आनंद समुद्र में निमग्न हो गये | उन कमलनयन द्विजवर शुक्र का शरीर परमानन्द जनित रोमांचके कारण पुलकायमान हो गया | तब उन्होंने हर्षपूर्वक शम्भु के चरणों में प्रणाम किया | उस समय उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे | फिर वे मस्तकपर अंजलि रखकर जय-जयकार करते हुए अष्टमूर्तिधारी [ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, यजमान, चन्द्रमा और सूर्य – इन आठों में अधिष्ठित शर्व, भव, रूद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव और ईशान – ये अष्टमूर्तियों के नाम है | ] वरदायक शिवकी स्तुति करने लगे |
अष्टमुर्त्यष्टका स्त्रोत्र –
भार्गव ने कहा – सूर्यस्वरूप भगवन ! आप त्रिलोकी का हित करनेके लिये आकाश में प्रकाशित होते है और अपनी इन किरणों से समस्त अंधकार को अभिभूत करके रातमें विचरनेवाले असुरों का मनोरथ नष्ट कर देते हैं | जगदीश्वर ! आपको नमस्कार है | घोर अन्धकार के लिये चन्द्रस्वरूप शंकर ! आप अमृत के प्रवाह से परिपूर्ण तथा जगत के सभी प्राणियों के नेत्र है | आप अपनी अमर्याद तेजोमय किरणों से आकाश में और भूतलपर अपार प्रकाश फैलाते हैं, जिससे सारा अन्धकार दूर हो जाता हैं; आपको प्रणाम है | सर्वव्यापिन ! आप पावन पथ – योगमार्ग का आश्रय लेनेवालों की सदा गति तथा उपास्यदेव हैं | भुवन-जीवन ! आपके बिना भला, इस लोकमें कौन जीवित रह सकता हैं | सर्पकुल के संतोषदाता ! आप निश्चल वायुरूप से सम्पूर्ण प्राणियों की वृद्धि करनेवाले है, आपको अभिवादन है | विश्व के एकमात्र पावनकर्ता ! आप शरणागतरक्षक और अग्नि की एकमात्र शक्ति है | पावक आपका ही स्वरूप है | आपके बिना मृतकों का वास्तविक दिव्य कार्य दाह आदि नहीं हो सकता | जगत के अंतरात्मा ! आप प्राण –शक्ति के दाता, जगत्स्वरूप और पद-पदपर शान्ति प्रदान करनेवाले है; आपके चरणों में मैं सिर झुकाता हूँ | जलस्वरूप परमेश्वर ! आप निश्चय ही जगत के पवित्रकर्ता और चित्रविचित्र सुंदर चरित्र करनेवाले हैं | विश्वनाथ ! जलमें अवगाहन करने से आप विश्वको निर्मल एवं पवित्र बना देते हैं, इसलिये आपको नमस्कार है | आकाशरूप ईश्वर ! आपसे अवकाश प्राप्त करने के कारण यह विश्व बाहर और भीतर विकसित होकर सदा स्वभाववश श्वास लेता है अर्थात इसकी परम्परा चलती रहती है तथा आपके द्वारा यह संकुचित भी होता है अर्थात नष्ट हो जाता है, इसलिये दयालु भगवन ! मैं आपके आगे नतमस्तक होताहूँ | विश्वम्भरात्मक ! आप ही इस विश्वका भरण-पोषण करते हैं | सर्वव्यापिन ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन अज्ञानान्धकार को दूर करनेमें समर्थ हो सकता है | अत: विश्वनाथ ! आप मेरे अज्ञानरूपी तमका विनाश कर दीजिये | नागभूषण ! आप स्तवनीय पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ हैं | इसलिये आप परात्पर प्रभु को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ | आत्मस्वरूप शंकर ! आप समस्त प्राणियों के अंतरात्मा में निवास करनेवाले, प्रत्येक रूप म व्याप्त है और मैं आप परमात्माका जन हूँ | अष्टमूर्ते ! आपकी इन रूप-परम्पराओं से यह चराचर विश्व विस्तार को प्राप्त हुआ है, मुक्तपुरुषों के बन्धो ! आप विश्व के समस्त प्राणियों के स्वरूप, प्रणतजनों के सम्पूर्ण योगक्षेम का निर्वाह करनेवाले और परमार्थ-स्वरूप है | आप अपनी इन अष्टमूर्तियों से युक्त होकर इस फैले हुए विश्वको भलिभाँति विस्तृत करते अहिं, अत: आपको मेरा अभिवादन है |

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिवर ! भृगुनन्दन शुक्र ने इसप्रकार अष्टमुर्त्यष्टक –स्तोत्रद्वारा शिवजी का स्तवन करके भूमिपर मस्तक रखकर उन्हें बारंबार प्रणाम किया | जब अमित तेजस्वी भार्गवने महादेव की इस प्रकार स्तुति की, तब शिवजी ने चरणों में पड़े हुए उन द्विजवर को अपनी दोनों भुजाओं से पकडकर उठा लिया और परम प्रेमपूर्वक मेघगर्जन की-सी गम्भीर एवं मधुर वाणी में कहा | उससमय शंकरजी के दाँतो की चमक से सारी दिशाएँ प्रकाशित हो उठी थी |
महादेवजी बोले – विप्रवर कवे ! तुम मेरे पावन भक्त हो | तात ! तुम्हारे इस उग्र तपसे, उत्तम आचरणसे, लिंगस्थापनजन्य पुण्यसे, लिंग की आराधना करने से, चित्तका उपहार प्रदान करनेसे, पवित्र अटल भावसे, अविमुक्त महाक्षेत्र काशी में पावन आचरण करने से मैं तुम्हें पुत्ररूप से देखता हूँ; अत: तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं हैं | तुम अपने इसी शरीरसे मेरी उदरदरी में प्रवेश करोगे और मेरे श्रेष्ठ इन्द्रियमार्ग से निकलकर पुत्ररूप में जन्म ग्रहण करोगे | महाशुछे ! मेरे पास जो मृतसंजीवनी नामकी निर्मल विद्या है, जिसका मैंने ही अपने महान तपोबल से निर्माण किया है, उस महामंत्ररूपा विद्याको आज मैं तुम्हे प्रदान करूँगा; क्योंकि तुम पवित्र तपकी निधि हो, अत: तुममें उस विद्याको धारण करनेकी योग्यता वर्तमान है | तुम नियमपूर्वक जिस-जिसके उद्देश्यसे विद्येश्वर की इस श्रेष्ठ विद्याका प्रयोग करोगे, वह निश्चय ही जीवित हो जायगा – यह सर्वथा सत्य है | तुम आकाश में अत्यंत दीप्तिमान तारारूप से स्थित होओगे | तुम्हारा तेज सूर्य और अग्नि के तेजका भी अतिक्रमण कर जायगा | तुम ग्रहों में प्रधान माने जाओगे | जो स्त्री अथवा पुरुष तुम्हारे सम्मुख रहनेपर यात्रा करेंगे, उनका सारा कार्य तुम्हारी दृष्टि पड़ने से नष्ट हो जायगा | सुव्रत ! तुम्हारे उदय होनेपर जगत में मनुष्यों के विवाह आदि समस्त धर्मकार्य सफल होंगे | सभी नंदा (प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी ) तिथियाँ तुम्हारे संयोग से शुभ हो जायँगी और तुम्हारे भक्त वीर्यसम्पन्न तथा बहुत-सी सन्तानवाले होंगे | तुम्हारे द्वारा स्थापित किया हुआ यह शिवलिंग ‘शुक्रेश’ के नामसे विख्यात होगा | जो मनुष्य इस लिंग की अर्चना करेंगे, उन्हें सिद्धि प्राप्त हो जायगी | जो लोग वर्षपर्यन्त नक्तव्रतपरायण होकर शुक्रवार के दिन शुक्रकूप के जलसे सारी क्रियाएँ सम्पन्न केक शुक्रेश की अर्चना करेंगे, उन्हें जिस फलकी प्राप्ति होगी, वह मुझसे श्रवण करो |
उन मनुष्यों में वीर्य की अधिकता होगी, उनका वीर्य कभी निष्फल नहीं होगा, वे पुत्रवान तथा पुरुषत्व के सौभाग्यसे सम्पन्न होंगे | इसमें तनिक भी संदेह नहीं है | वे सभी मनुष्य बहुत-सी विद्याओं के ज्ञाता और सुख के भागी होंगे | यों वरदान देकर महादेव उसी लिंग में समा गये | तब भृगुनन्दन शुक्र भी प्रसन्नमन से अपने धामको चले गये | व्यासजी ! यों शुक्राचार्य को जिसप्रकार अपने तपोबल से मृत्युंजय नामक विद्या की प्राप्ति हुई थी, वह वृतांत मैंने तुमसे वर्णन कर दिया |