व्याधकर्मा की कथा

ऋषियों ने पूछा – सूतजी महाराज ! अब आप हमलोगों को यह बतलाने की कृपा करें कि किस स्तोत्र के पाठ करने से वेदोंकें पाठ करने का फल प्राप्त होता है और पाप विनष्ट होते है |
सूतजी बोले – ऋषियों ! इस विषय में आप एक कथा सुनें | राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था | उसकी स्त्री का नाम था कामिनी | एक बार वह ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने के लिये अन्यत्र गया हुआ था | इधर उसकी स्त्री कामिनी जो अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाली थी, पति के न रहनेपर निन्दित कर्म में प्रवृत्त हो गयी | फलत: उसे एक निंध्य पुत्र उत्पन्न हुआ, जो व्याधकर्मा नामसे प्रसिद्ध हुआ | वह भी अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाला था, धूर्त था तथा वेड-पाठ से रहित था | उस ब्राह्मण ने अपनी स्त्री एवं पुत्र के निन्दित कर्म और पापमय आचरण को देखकर उन दोनों को घरसे निकाल दिया तथा स्वयं धर्म में तत्पर रहते हुए विन्ध्याचल पर्वतपर प्रतिदिन चण्डीपाठ करने लगा | जगदम्बा के अनुग्रह से अंत में वह जीवन्मुक्त हो गया |
इधर वे दोनों माता-पुत्र (कामिनी और व्याधकर्मा) पूर्वपरिचित निषाद के पास चले गये और वहीँ निवास करने लगे | वहाँ भी वे दोनों अपने निन्दित आचरण को छोड़ न सके और इन्हीं बुरे कर्मों से धन-संग्रह करने लगे | व्याधकर्मा चौर्य-कर्म में प्रवुत्त हो गया | ऐसे ही भ्रमण करते हुए दैवयोग से एक दिन वह व्याधकर्मा देवी के मंदिर में पहुँचा | वहाँ एक श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ कर रहे थे | दुर्गापाठ के आदिचरित (प्रथमचरित्र) के किंचित पाठमात्र के श्रवण से उसकी दुष्टबुद्धि धर्ममय हो गयी, फलत: धर्मबुद्धि-सम्पन्न उस व्याधकर्मा ने उस श्रेष्ठ विप्रका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया और अपना सारा धन उन्हें दे दिया | गुरु की आज्ञा से उसने देवी के मन्त्र का जप किया | बीजमंत्र के प्रभाव से उसके शरीरसे पापसमूह कृमि के रूप में निकल गये | तिन वर्षतक इसप्रकार जप करते हुए वह निष्पाप श्रेष्ठ द्विज हो गया | इसीप्रकार मन्त्र-जप और आदि चरित्र का पाठ करते हुए उसे बारह वर्ष व्यतीत हो गये | तदनंतर वह द्विज काशीमें चला आया | मुनि एवं देवों से पूजित महादेवी अन्नपूर्णा का उसने रोचनादि उपचारों के द्वारा पूजन किया और उनकी इसप्रकार स्तुति की –
नित्यानन्द पराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी निर्धुताखिलपापपावनकरी काशीपुराधारीश्वरी |
नानालोककरी महाभयहरी विश्वम्भरी सुन्दरी विद्यां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ||
‘हे काशीपुरी की अधीश्वरी अन्नपूर्णेश्वरी ! आप नित्य आनंददायिनी है | शत्रुओं से अभय प्रदान करनेवाली है तथा आप सौन्दर्यरत्नों की निधान और समस्त पापों को नष्ट कर पवित्र कर देनेवाली है | हे सुन्दरी ! आप सम्पूर्ण लोकों की रचना करनेवाली, महान-महान भयों को दूर करनेवाली, विश्वका भरण-पोषण करनेवाली तथा सबके ऊपर अनुग्रह करनेवाली हैं | हे मात: ! आप मुझे विद्या प्रदान करें |
इस स्तुति का एक सौ आठ बार जपकर ध्यान में नेत्रों को बंदकर वह वहीँ सो गया | स्वप्न में उसके सम्मुख अन्नपूर्णा शिवा उपस्थित हुई और उसे ऋग्वेद का ज्ञान प्रादन कर अन्तर्हित हो गयी | बाद में वह बुद्धिमान ब्राह्मण श्रेष्ठ विद्या प्राप्त कर राजा विक्रमादित्य के यज्ञ का आचार्य हुआ | यज्ञ के बाद योग धारण कर हिमालय चला गया |
हे विप्रो ! मैंने आप लोगों को देवी के पुण्यमय आदि-चरित के माहात्म्य को बतलाया, जिसके प्रभाव से उस व्याधकर्मा ने ब्राह्मीभाव प्राप्तकर परमोत्तम सिद्धि को प्राप्त कर लिया था |