कर्मों की गति न्यारी : जुआरी बन गया त्रिलोक पति
मनुष्य के कर्मफल का भण्डार अक्षय है उसे भोगने के लिए ही जीव चौरासी लाख योनियों में शरीर धारण करता आ रहा है । समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है । आज जो इन्द्र है वह अपने पहले के जन्मों में कभी कीड़ा हो सकता है तथा पहले का कीट आज अपने सत्कर्मों से इन्द्र बन सकता है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ? इसीलिए कहा गया है कर्मों की गति बड़ी गहन और न्यारी होती है ।
कर्मफल के विलक्षण प्रभाव को दिखलाता राजा बलि का जीवन
पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा बलि पूर्व जन्म में जुआरी था । एक दिन उसे जुए में कहीं से कुछ पैसे मिले । उन पैसों से उसने अपनी प्रियतमा वेश्या के लिए एक सुन्दर माला, इत्र, व चंदन खरीदा और कामातुर होकर उससे मिलने के लिए जल्दी-जल्दी चला जा रहा था । तभी एक पत्थर से ठोकर खाकर वह मूर्च्छित हो गया । कुछ देर में जब होश आया तो उसने अनुभव किया कि मेरी मृत्यु अब निकट है । पूर्वजन्म के किसी पुण्य से उसके मन में सद्बुद्धि उत्पन्न हुई और वैराग्य जागा ।
जुआरी ने कभी किसी महात्मा से सुना था कि कोई भी वस्तु ‘शिवार्पण’ कर देने से बहुत पुण्य होता है । उसने सोचा—‘माला, इत्र, चंदन तो प्रियतमा तक पहुंच नहीं सकता, ‘शिवार्पण’ कर देने से कुछ अच्छा होता होगा तो हो जायेगा अन्यथा मर तो रहा ही हूँ और माला, इत्र, चंदन भी जमीन पर गिरकर बेकार जा रहे हैं ।’ यही सोचकर जुआरी ने माला, इत्र व चंदन भगवान शिव को अर्पण—‘शिवार्पण’ कर दिया ।
जुआरी की मृत्यु होने पर यमराज के दूत उसे पकड़ कर ले गए । यमराज ने चित्रगुप्त से कहा—‘इसका बहीखाता (कर्मों का लेखा-जोखा) देखो ।’
चित्रगुप्त ने कहा—‘यह तो जन्म-जन्मान्तर का पापी है । बस अभी-अभी थोड़ी देर पहले जुए में जीते पैसे से इसने वेश्या के लिए माला, इत्र व चंदन खरीदा था । जब ठोकर खाकर गिरा तो इसने मृत्यु निकट देखी और सोचा कि माला आदि चीजें बेकार जा रही हैं तो उसे ‘शिवार्पण’ कर दिया । यह कोई भगवान को माला अर्पण करने वाला तो था नहीं, न ही इसने भगवान के लिए माला खरीदी थी । बस यही इसका पुण्य है ।’
यमराज ने कहा—‘यह तो इसका पुण्य ही माना जाएगा ।’
यमराज ने जुआरी से पूछा—‘पहले तुम पुण्य का फल भोगोगे या पाप का ।’
जुआरी ने कहा—‘मैं तो जन्म-जन्मान्तर का पापी हूँ । पाप का फल भोगने में पता नहीं कितना समय लगे इसलिए मैं पहले पुण्य का फल भोगना चाहूंगा ।’
भगवान शंकर की कृपा से जुआरी बन गया इन्द्र
यमराज ने कहा—‘शिवार्पण’ के पुण्य से तुम तीन घड़ी के लिए इन्द्रलोक के मालिक बन गये हो ।’
भगवान शिव की बिना भक्ति की आराधना से (जमीन में गिरी हुई गंध, पुष्प से) एक महापातकी को कितना बड़ा फल मिला ! जो लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ भगवान शिव को गंध, पुष्प व जल अर्पण करते हैं, उनकी आराधना करते हैं, उन्हें तो सायुज्य मुक्ति ही मिलती है ।
उसी समय देवगुरु बृहस्पति आये और जुआरी को ऐरावत हाथी की पीठ पर बिठा कर इन्द्रलोक ले गये । जुआरी जब इन्द्रासन पर बैठा, अप्सराएं नृत्य करने लगीं, गंधर्व गान करने लगे । उन गंधर्वों में नारदजी भी थे । यह देखकर उन्हें हंसी आ गई ।
जुआरी ने कहा—‘इन्द्र के दरबार में बे-अदबी ! बताओ क्यों हंसते हो ?’
नारदजी ने कहा—‘जुआरी तू जीवनपर्यन्त जुआ खेलता रहा । तूने यही सोचा कि ‘शिवार्पण’ करने से कुछ होता होगा तो हो जायगा, न होगा तो मर तो रहे ही हैं और माला, इत्र आदि भी बेकार ही जा रहे हैं । आज इसका परिणाम यह हुआ कि तुम तीन घड़ी के लिए ही सही, इन्द्रलोक के स्वामी बन गये । इसलिए मुझे हंसी आ रही है ।’
जुआरी द्वारा इन्द्रलोक का दान
नारदजी की बात सुनकर जुआरी के ज्ञानचक्षु खुल गये । ज्ञान की चिनगारी जब पाप के ईंधन पर गिरती है तो पाप जलते हैं ।
जुआरी सिंहासन से उतरा और नारदजी से कहा—‘गुरुदेव ! अब भगवान शंकर के अलावा कोई शरण नहीं है । हम सारे इन्द्रासन पर ही तुलसी रख देते हैं ।’
नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गति:।
नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे।।
अर्थात्–’शिव के समान देव नहीं है, शिव के समान गति नहीं है, शिव के समान दाता नहीं है, शिव के समान योद्धा (वीर) नहीं है।’
इतना कहकर जुआरी ने स्वर्ग की निधियों का ऋषियों को दान करना शुरु कर दिया । उसने ऐरावत हाथी अगस्त्यजी को, उच्चै:श्रवा नाम का घोड़ा विश्वामित्र को, कामधेनु गाय महर्षि वशिष्ठजी को, चिन्तामणि रत्न गालवजी को और कल्पवृक्ष कौण्डिन्य मुनि को दे दिया । भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए जुआरी ने कुछ ही देर में सारा इन्द्रलोक दान कर दिया । तभी तीन घड़ी बीत गई । वह फिर यमलोक को पहुंचाया गया ।
जब इन्द्र वापिस आए तो अमरावती ऐश्वर्य-शून्य थी । इन्द्र स्वर्ग के सारे ऐश्वर्य—ऐरावत हाथी, कामधेनु, पारिजात पुष्प आदि को न देखकर क्रोधित हो गये और पूछने लगे ‘ये सब कहां चले गये ।’
तब देवगुरु बृहस्पति बोले—‘‘सब कुछ जुआरी ने दान दे डाला । बड़ी भारी सत्ता मिलने पर जो प्रमाद में न पड़कर सत्कर्म में लगे रहते हैं, वे ही धन्य हैं । वे ही भगवान शंकर के प्रिय भक्त हैं ।’
इन्द्र स्वर्ग की निधियों को वापिस लाने के अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए देवगुरु बृहस्पति को लेकर यमराज के पास संयमनीपुरी पहुंचे और जुआरी की शिकायत करने लगे । यमराज ने जुआरी से अपना पक्ष रखने को कहा ।
जुआरी ने कहा—‘‘हमको जो करना था, हमने कर लिया; अब आपको जो करना हो, वह आप कर लो ।’
यमराज ने इन्द्र से कहा—‘आप बूढ़े हो गये हैं किन्तु अभी तक आपकी राज्य से सम्बधित आसक्ति दूर नहीं हुई है । जुआरी का पुण्य आपके सौ यज्ञों से कही महान है । जाइये ऋषियों के चरणों में पड़ कर या धन देकर अपने रत्न लौटा लीजिये ।’
यमराज ने जुआरी से कहा—‘दान का पुण्य भूलोक में ही होता है । स्वर्ग में दान नहीं करना चाहिए । इसलिए तुझे नरक की यातना भोगनी ही होगी ।’
तब चित्रगुप्त ने यमराज से कहा—‘इसने भगवान शिव के नाम पर ऐसे उत्तम ऋषियों को इतनी बहुमूल्य वस्तुएं दी हैं, तब इसे नरक की यातना क्यों भोगनी पड़ेगी ? शिव के नाम पर स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक या कहीं पर भी कुछ दिया जाए तो उसका अक्षय फल मिलता है । इसके जितने भी पाप थे वे सब भगवान शिव के प्रसाद से भस्म होकर पुण्य में परिणत हो गये हैं ।’
यमराज सोचने लगे—‘अब यह जुआरी नरक नहीं जायगा, अब तो यह इन्द्र ही होगा क्योंकि इस बार तो इसने विधिवत् पूरा इन्द्रलोक ही दान कर दिया है ।’
उसी पुण्य के प्रभाव से वही जुआरी अगले जन्म में महान भक्त प्रह्लाद का पौत्र राजा बलि हुआ । यहां पर भी वह पूर्व जन्मों के शिवपूजन के पुण्य से इतना त्यागी हुआ कि गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी उसने भगवान वामन को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया ।
वामन भगवान राजा बलि से बोले—‘हम तुम्हें क्या दें ?’
बलि ने कहा—‘भगवन् ! हमारी जिधर भी दृष्टि जाए, उधर हम आप का ही दर्शन करें ।’
राजा बलि की बैठक के बावन (52) दरवाजे हैं । भगवान ने सोचा, न जाने किस दरवाजे पर बलि की दृष्टि चली जाए ? यही सोचकर बावनों दरवाजों पर शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए ब्रह्माण्ड के स्वामी पहरेदार के रूप में विराजमान हो गये । कोई भी याचक राजा बलि के द्वार पर कुछ मांगने जाता है तो उनके द्वार पर विराजमान भगवान विष्णु स्वयं उन्हें मुंहमांगी वस्तुएं देते हैं ।
इसीलिए प्रह्लादजी ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा है—‘इन्द्र, कुबेर आदि देवताओं के द्वारपाल तो आप कभी नहीं बने परन्तु आप हम असुरों के द्वारपाल बन रहे हैं । इससे लगता है कि आप हम असुरों के पक्षपाती हैं ।’
इस प्रसंग से गीता में भगवान का यह कथन सत्य सिद्ध हो जाता है कि पत्र-पुष्प, फल, जल जो कुछ भी भगवान के लिए अर्पित किया जाता है, वह अनन्तगुना होकर वापिस आता है ।