भगवान शिव ने सबसे पहले अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया
महादेव जी कैलाश पर्वत पर जा रहे थे। पार्वती जी बोली मैं भी चलूँगी। महादेव जी बोले पार्वती जी तुम मत चलो, तुम्हें भूख, प्यास लगेगी। बोली महाराज मैं भी चलूँगी। रास्ते में बोलीं, महाराज मुझे भूख लगी है। मुझे तो खीर-खांड का भोजन चाहिए। महादेव जी बोले मैंने तो कहा था मत चलो।
*वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥
शिवजी तो जगत के गुरु हैं, मान्यता के अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया, सप्त ऋषियों ने शिवजी से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया।
इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो, आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जायेगी। परशुरामजी और रावण भी शिवजी के शिष्य थे, शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी, जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है, आदि गुरु शंकराचार्यजी और गुरु गोरखनाथजी ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया, भगवान् शिवजी ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है।
उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए सात ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के सात बुनियादी पहलू बन गयें, वक्त के साथ इन सात रूपों से सैकड़ों शाखायें निकल आयीं, बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने तीन सौ ईसा पूर्व मात्र दो सौ सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया, योग का आठवाँ अंग मोक्ष है, सात अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिये है। भगवान् शिवजी की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिये उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं, उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है, उसके बाद नन्दी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र, जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक ( कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है।
भैरव भी दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव, दूसरी ओर वीरभद्र शिवजी का एक बहादुर गण था, जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया, देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिवजी ने अपनी जटा से वीरभद्र नामक गण उत्पन्न किया, भगवान् शिवजी के ये थे प्रमुख गण - भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है, ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं, और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं, कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे, इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा और महाकाल, उल्लेखनीय है कि शिवजी के गण और द्वारपाल नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी, कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था। जैसे पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है, वैसे ही देवताओं और दैत्यों के झगड़े के बीच जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिवजी की पंचायत का फैसला अंतिम होता था, शिवजी की पंचायत में पाँच देवता शामिल थे, ये पाँच देवता थे- सूर्य , गणपति, देवी, रुद्र, और भगवान् विष्णुजी ये शिव पंचायत के हिस्से कहलाते थें।
जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं, यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी हैं और पार्षद भी, भगवान् शिवजी को वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले और बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिवजी का चिह्न माना गया है, कुछ लोग डमरू और अर्ध चंद्र को भी शिवजी का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिवजी की ज्योति का पूजन करते हैं, भगवान् शिवजी की जटायें हैं, उन जटाओं में एक चंद्र चिह्न होता है, उनके मस्तिष्क पर तीसरी आंख भी है, वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं।
उनके एक हाथ में डमरू तो दूसरे में त्रिशूल है, वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाये रहते हैं, शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं, वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगायें बैठे रहते हैं, माना जाता है कि केदारनाथ और अमरनाथ में वे विश्राम करते हैं।
शिवजी और भस्मासुर का दृष्टांत जो आप सभी पढ़ चुके होगें, उस समय भगवान् शंकरजी वहां से भाग गयें, उनके पीछे भस्मासुर भी भागने लगा, भागते-भागते शिवजी उस पहाड़ी के पास रुके, और उन्होंने इस पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गयें।
भगवान् विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई। माना जाता है कि वह गुफा जम्मू से कुछ दूरी पर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है, इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन शांत हो जाता है, इस गुफा में आज भी हर दिन सैकड़ों की तादाद में शिवभक्त शिवजी की अराधना करने आते हैं, और वहाँ रह कर तपस्या करते हैं।
जय श्री गौरीशंकर , देवाधिदेव महादेव की जय
करुणा की देवी माता पार्वती सदा सहाय