हिंदी और संस्कृत में गजेन्द्र मोक्ष (Gajendra Moksha in Hindi and Sanskrit)
गजेन्द्र मोक्ष का महत्व (Importance of Gajendra Moksha)
आज बहुत से ज्योतिषों ,धार्मिक गुरु और कई तरह के अन्य स्त्रोतों से कर्ज से मुक्त होने के लिये गजेंद्र मोक्ष के पाठ को करने का सुझाव दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसका पाठ करने से पित्तर दोष से मुक्ति मिलती है. जो लोग कर्ज से परेशान हैं और उनके लिये कर्ज चुकाना अत्यंत कठिन हैं उन्हें भी गजेंद्र मोक्ष के पाठ से समस्या का समाधान मिलता है । किसी भी तरह के मुश्किल मे घिरे होने पर हमें इस स्त्रोत का पाठ करना चाहिये । इस के पाठ से शीघ्र हीं कोई न कोई रास्ता मिल जाता है ।
इस पाठ का आरम्भ शुक्ल पक्ष की किसी भी तिथि को कर सकते हैं ।पाठ करते समय आपका मुख पूर्व दिशा की ओर हो । यह पाठ सूर्योदय से पूर्व अर्थात सूर्य निकलने के पहले करने पर अति उत्तम फलदायी होता है।
गजेंद्र मोक्ष क्या है ? (What is Gajendra Moksha ?)
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र (Gajendra Moksha Strota)
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् |
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि || २ ||
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥ ४ ॥
अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहनेवाले इस शास्त्र –प्रसिद्ध कार्य- कारणरूप जगत् को जो अकुण्ठित – दृष्टि होने के कारण साक्षीरूप से देखते रहते हैं- उनसे लिप्त नहीं होते , वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ४ ॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥ ६॥
जिस प्रकार भिन्न-भिन्न रूपों में नाट्य करनेवाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते ,फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययसंभवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥ ८ ॥
जिनका हमारी तरह न कर्मवश जन्म होता हैं और न जिनके द्वारा अहंकारप्रेरित कर्म हीं होते हैं, फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि और प्रलय (संहार ) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को अपनी माया से स्वीकार करते हैं॥ ८ ॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥ ११ ॥
विवेकी पुरुषके द्वारा सत्वगुणविशिष्ट ,निवृतिधर्मा के आचरण से प्राप्त होने योग्य , मोक्ष-सुखके देनेवाले तथा मोक्ष-सुखकी अनुभूतिरूप प्रभु को नमस्कार है ॥ ११ ॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥ १२ ॥
सत्वगुणको स्वीकार करके शांत, रजोगुणको स्वीकार करके घोर एवं तमोगुणको स्वीकार करके मूढ़ से प्रतीत होनेवाले, भेदरहित ; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥ १२ ॥
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय ।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥ १५ ॥
सबके कारण किंतु स्वयं कारणरहित तथा कारण होने पर भी परिणामरहित होने के कारण अन्य कारनों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की प्ररम गति भगवान को नमस्कार है । ॥ १५ ॥
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥ १६ ॥
त्रिगुणरूपी ज्ञान को जिन्होंने काष्ठ अरणि में छुपे हुए अग्नि के तरह गुप्त रखा हुआ है । उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मनमेंसृष्टि रचनेकी बाह्य – वृति- जाग्रत हो जाती है तथा आत्मतत्वकी भावना के द्वारा विधि-निषेधरूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित रहते है, उन महाप्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम ॥ १९ ॥
जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवं मोक्ष की कामना से भजनेवाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा के लिये उबार लें ॥ १९ ॥
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ॥ २० ॥
जिनके अनन्य भक्त- जो वस्तुत: एकमात्र उन भगवान के ही शरण हैं – धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते , अपितु उन्हींके परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनंद के सनुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥ २० ॥
यथार्चिषोऽग्ने: सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।
तथा यतोऽयं गुणसंप्रवाहो बुद्धिर्मनः ख्रानि शरीरसर्गाः ॥ २३ ॥
जिस प्रकार प्रज्वल्ल्त अग्निसे लपटें तथा सूर्यसे किरणें बार-बार निकलती हैं और पुन: अपने कारण में लीन हो जाती है , उसी प्रकार बुद्धि, मन , इंद्रियँ और नाना योनियों के शरी – यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयम्प्रकाशपरमात्मा से प्रकट होता है और पुन: उन्हीं में लीन हो जाता है ॥ २३ ॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ न स्त्री न षण्ढ़ो न पुमान् न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः ॥ २४ ॥
वे भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं , न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक् ( मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी ) योनीके प्राणी हैं । न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक हीं हैं । नवे ऐसे कोई जीव हैं , जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश न हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जानेपर जो कुछ बचा रहता है, वही उनका स्वरुप है तथा वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥ २४ ॥
योगरंधितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यंति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥ २७ ॥
जिन्होंने भगवद्भक्तिरूप योग के द्वारा कर्मोको जला डाला है, वे योगी लोग उसी योगके द्वारा शुद्ध किये हुए अपने ह्रदयमें जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं , उन योगेश्वर भगवान को नमस्कार करता हूँ॥ २७ ॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥ २८ ॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्व, रज – तमरूप ) शक्तियोंका रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इंद्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे है, तथापि जिनकी इंद्रियाँ विषयोंमें ही रची-पची रहती है – ऐसे लोगोंको जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है ॥ २८ ॥
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि खा उपात्तचक्रम्।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह क्र्च्छान्नारायणखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥३२॥
सरोवरके भीतर महाबली ग्राहके द्वारा पकड़े जाकर दुखी हुए उस हाथी ने आकाशमें गरुड़की पीठ पर चक्रको उठाये हुए भगवान श्रीहरि को देखकर अपनी सूँड़को – जिसमें उसने ( पूजाके लिये) कमलका एक फूल ले रक्खा था – ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनतासे ‘सर्वपूज्य भगवान नारायण । आपको प्रणाम है ’ यह वाक्य कहा ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीड़ीतमज: सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरस: कृपयोज्जहार ।
ग्राहद् विपाटितामुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम्॥३३॥
उसे पीड़ित देखार अजन्मा श्रीहरि एकाएक गरुड़को छोड़कर झीलपर उतर आये । वे दयासे प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराजको तत्काल झील से बाहर निकाल ला ये और देवताओं के देखते-देखते चक्र से उस ग्राहका मुँह चीरकर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
इति गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र - Gajendra Moksha Strota end