गजेंद्र मोक्ष कथा (Gajendra Moksha Storey)

गजेंद्र मोक्ष की कथा का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में किया गया है। क्षीरसागर में दस हजार योजन ऊँचा त्रिकुट नाम का पर्वत था। उस पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र(हाथी) निवास करता था। वह सभी हाथियों का सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था। उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे तथा हथिनियाँ घूम रही थी ।
बड़े जोर की धुप के कारण उसे तथा उसके साथियों को प्यास लगी । तब वह अपने समूह के साथ पास के सरोवर से पाने पी कर अपनी प्यास बुझाने लगा। प्यास बुझाने के बाद वे सभी साथियों के साथ जल- स्नान कर जल- क्रीड़ा करने लगे । उसी समय एक बलवान मगरमच्छ ने उस गजराज के पैर को मुँह मे दबोच कर पाने के अंदर खीचने लगा । गजेंद्र ने अपनी पूरी शक्ति लगा कर अपने आप को छुड़ाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाया । गजेंद्र के साथ आये हुए हाथी के बच्चे और हथिनियों ने भी काफी जोर लगाया लेकिन सफल न हो सके ।
जब गजेंद्र ने अपने आप को मौत के निकट पाया और कोई उपाय शेष नहीं रह गया तब उसने प्रभु की शरण ली और आर्तनाद सए प्रभु की सतुति करने लगा। जिसे सुनकर भगवान श्री हरि स्वयं आकर उसके प्राणों की रक्षा की ।

गजेंद्र मोक्ष पूर्वजन्म कथा (Gajendra Moksha Previous Birth Storey )

जब शुकदेव जी ने राजा परिक्षित को यह कथा सुनायी तो राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा कि हे शुकदेव महाराज ! यह गजेंद्र कौन था जिसकी पुकार सुनकर भगवान भोजन छोड़कर आ गए ।
तब शुकदेव जी महाराज कहते हैं- हे परिक्षित पूर्व जन्म में गजेंद्र का नाम इन्द्रद्युम्न था । वह द्रविड देश का पाण्ड्वंशी राजा था । वह भग्वान का बहुत बड़ा सेवक था। उसने अपना राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहते हुए जटाएँ बढाकर तपस्वी के वेष में भगवान की अराधना कियाकरता था। एक दिन वहाँ से अगस्त्य मुनि अपने शिष्यों के साथ गुजरे और उन्होंने राजा को एकाग्रचित होकर उपासना करते हुए देखा। अगस्त्य मुनि ने देखा कि यह राजा अपने प्राजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म को छोड़कर तपस्वी की तरह रह रहा है अत: उस राजा इन्द्रद्युम्न पर क्रोधित हो गये । और क्रोध में आकर उन्होंने राजा को शाप दिया – कि हे राजा तुमने गुरुजनों से बिना शिक्षा ग्रहण किये हुए अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहे हो अर्थात् हाथी के समान जड़ बुद्धि हो गये इसलिये तुम्हें वही अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो’।
राजा ने इस श्राप को अपना प्रारब्ध समझा। इसके बाद दूसरे जन्म में उसे आत्मा की विस्मृति करा देने वाली हाथी की योनि प्राप्त हुई। परन्तु भगवान की आराधना के प्रभाव से हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी। भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना लोक में जगह दी ।

ग्राह पूर्वजन्म कथा (Crocodile Previous Birth story)

गजेंद्र को जिस ग्राह ने पकड़ा था वह पूर्व जन्म में ‘हूहू’ नाम का श्रेष्ठ गन्धर्व था। एक बार देवल ऋषि जलाशय में स्नान कर रहे थे । उसी जलाशय यह हूहू नामक गंधर्व ने चुपचाप अंदर जाकर ऋषि के पैर पकड़ लिये और मगर मगर (मगरमच्छ) कहकर चिल्लाने लगा। इससे क्रोधित होकर देवल ऋषि ने श्राप दे हूहू को श्राप देते हुए कहा –हे! हुहु गन्धर्व तुझे लाज नहीं आती। तुझे संत-महात्मा का आदर करना चाहिए और तू मजाक उड़ा रहा है। और मगर की तरह आकर मेरा पैर पकड़ता है। अरे दुष्ट! अगर तुझे मगर बनने का इतना ही शोक है तो तुझे मगर की योनि प्राप्त होगी। शाप मिलते हीं वह गंधर्व ऋषि से क्षमायाचना करने लगा । तब ऋषि ने कहा – तू मगर की योनी में जरूर जन्म लेगा लेकिन तेरा उद्धार भग्वान के हाथों होगा। इसी ग्राह रूपी हूहू गंधर्व का उद्धार भगवान श्री हरि ने किया ।

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