गजेन्द्र मोक्ष का हिन्दी–पद्य में अनुवाद(Gajendra Moksha Translated as Hindi poem)
लोक, लोकपालों का, इन सबके कारणका भी संहार ।
कर देता संपूर्ण रूप से महाकालका कठिन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है, एक गहन , गंभीर , अपार ।
उसके पार चमकते जो विभु, वे लें मुझको आज संभार ॥५॥
देवता तथा ऋषि लोग नहीं जिनके स्वरूपको जान सके ।
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा ।
है दुर्गम जिनका चरित-सिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥
जो साधुस्वाभवी , सर्वसुहृद् वे मुनिगण भी सब संग छोड़ ।
बस केवलमात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड़ ॥
जिनके मंगलमय पद-दर्शन की इच्छा से वनमें पालन ।
करते अलोक व्रत का अखण्ड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥
जिसका होता है जन्म नहीं, केवल होता भ्रमसे प्रतीत ।
जो कर्म और गुण दोष तथा जो नामरूपसे है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथासमय ॥८॥
सबके स्वामी, सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ ! तुझे है नमस्कार ।
हे आत्ममूल, हे मूलप्रकृति, हे पुरुष, नमस्ते बार-बार ॥१३॥
इन्द्रिय-विषयों का जो दृष्टा, इन्द्रियानुभवका जो कारन ।
जो व्यक्त असत् की छायामें, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥
सबके कारण निष्कारण भी, हे विकृतिरहित सबके कारण ।
तेरे चरणों में बार-बार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रोंका सारे, जो केवल एक अगाध निलय ।
उस मोक्षरूपको नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥
जो ज्ञानरूप से छिपा गुणों के बीच, काष्ठ में यथा अनल ।
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उसको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे, जो विधि-निषेधके बंधन में ॥१६॥
जो अविनाशी, जो सर्वव्याप्त. सबका स्वामी, सबके ऊपर ।
अव्यक्त किन्तु अध्यात्ममार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत अति दूर -सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार ।
कर-कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥
उत्पन्न वेद, ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल , चर और अचर ।
होते जिसकी बस, स्वल्प कलासे नाना नाम-रूप धरकर ॥२२॥
ज्यों ज्वलित अग्निसे चिंगारी, ज्यों रविसे किरणें निकल-निकल ।
फिर लौट उन्हींमें जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन, बुद्दि, सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियोंवाले तन ।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥
वह नहीं देव, वह असुर नहीं, वह नहीं मर्त्य वह क्लीब नहीं ।
वह कारण अथवा कार्य नहीं, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नहीं ॥
सबका कर देनेपर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥
श्री शुकदेव जी ने कहा -
यह निराकार-वपु भेदरहित की स्तुति गजेन्द्र वर्णित सुनकर ।
आकृति-विशेषवाले रूपों के अभिमानी ब्रह्मादि अमर ॥
आये जब उसके पास नहीं; तब श्री हरि जो आत्मा घट-घट ।
के होनेसे सब देवरूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥३०॥
वे देख उसे इस भाँति दुःखी , उसका यह आर्त्तस्तव सुनकर ।
मन-सी गति वाले पक्षिराजकी चढ़े पीठ ऊपर सत्वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज करमें चक्र उठाये थे ।
तब जगनिवासके साथ-साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे ॥३१॥
अतिशय बलशाली ग्राह जिसे था पकड़े हुए सरोवरमें ।
गजराज देखकर श्रीहरिको, आसीन गरुड़पर अंबरमें ॥
खर चक्र हाथमें लिये हुए, वह दुखिया उठा कमल करमें ।
‘हे विश्व-वन्द्य प्रभु ! नमस्कार’ यह बोल उठा पीड़ित स्वर में ॥३२॥
पीड़ा में उसको पड़ा देख, भगवान अजन्मा पड़े उतर ।
अविलम्ब गरुड़से फिर कृपया झट खींच सरोवरसे बाहर ॥
कर गज को मकर-सहित, उसका मुख चक्रधार से चीर दिया ।
देखते-देखते सुरगणके हरि ने गजेन्द्र को छुड़ा लिया ॥३३॥