श्रीलक्ष्मी व्रत करने की विधि

भगवान कृष्ण कहते हैं – महाराज ! यह व्रत मार्गशीर्ष (मंगसर अथवा अगहन) माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को किया जाता है. सुबह उठकर शौचादि से निवृत हो स्नान करके इस व्रत के नियम को धारण किया जाता है. इस व्रत में नदी पर स्नान किया जाता है और यदि नदी ना हो तब घर पर ही स्वच्छ जल से स्नान करें. दो वस्त्र धारण कर देवता व पितरों का पूजन तर्पण कर लक्ष्मी जी का पूजन करें. लक्ष्मी जी की ऎसी मूर्ति अथवा चित्र लगाएँ जिसमें वह कमल पर विराजमान हो और उनके हाथ में भी कमल हो, आभूषणों से अलंकृत हो, जिन्हें चार श्वेत हाथी स्वर्ण कलशों के जल से स्नान करा रहे हों.
उपरोक्त प्रकार की भगवती लक्ष्मी की प्रतिमा अथवा चित्र की निम्नलिखित मंत्रों से पुष्पों द्वारा अंग पूजा करें.
ऊँ चपलायै नम: पादौ पूजयामि
ऊँ चन्चलायै नम: जानुनी पूजयामि
ऊँ कमलवासिन्यै नम: कटि पूजयामि
ऊँ ख्यात्यै नम: नाभिं पूजयामि
ऊँ मन्मथवासिन्यै नम: स्तनौ पूजयामि
ऊँ ललितायै नम: भुजद्वयं पूजयामि
ऊँ उत्कण्ठितायै नम: कण्ठं पूजयामि
ऊँ माधव्यै नम: मुखमण्डलं पूजयामि
ऊँ श्रियै नम: शिर: पूजयामि
उपरोक्त मंत्रों से पैर से लेकर सिर तक पूजा करते हैं. प्रत्येक अंग की पूजा करते हुए अनेक प्रकार के अंकुरित धान्य व फल नेवैद्य के रुप में अर्पित करें. इसके बाद पुष्प व कुंकुम आदि सुवासिनी स्त्रियों का पूजन कर उन्हें मधुर भोजन कराएँ फिर उन्हें प्रणाम कर विदा करें. एक सेर भर चावल व घी से भरा बर्तन ब्राह्मण को देकर “श्रीश: सम्प्रीयताम्” कहकर प्रार्थना करें. इस प्रकार से पूजन करने के बाद मौन रहकर स्वयं भोजन करें. प्रति माह यह व्रत करें और श्री, लक्ष्मी, कमला, सम्पत्, रमा, नारायणी, पद्मा, घृति, स्थिति, पुष्टि, ऋद्धि तथा सिद्धि इन बारह नामों से क्रमश: बारह महीनों में भगवती लक्ष्मी की पूजा करके पूजन के अंत में ‘प्रीयताम’ का उच्चारण करें.
बारहवें महीने की पंचमी को वस्त्र का मण्डप बनाकर गन्ध व पुष्पों से उसे अलंकृत कर उसके मध्य शैया पर उपकरणों सहित भगवती लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करें. आठ मोती, नेत्रपट्ट, सप्तधान्य, खड़ाऊ, जूते, छाता, अनेक प्रकार के पात्र और आसन वहाँ रखें. उसके बाद लक्ष्मी जी का पूजन करके वेदवेत्ता और सदाचार ब्राह्मण को सवत्सा गौसहित यह सारा सामान प्रदान करें. यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन करा उन्हें दक्षिणा दें. अंत में भगवती लक्ष्मी से ऋद्धि की कामना से निम्न प्रकार से प्रार्थना करें –
क्षीराब्धिमथनोदूते विष्णोर्वक्ष:स्थलालये।
सर्वकामप्रदे देवि ऋद्धि यच्छ नमोsस्तु ते ।।
इसका अर्थ है कि हे देवी! आप क्षीरसागर के मंथन से प्रकट हुई हैं, भगवान विष्णु का वक्ष:स्थल आपका अधिष्ठान है, आप सभी कामनाओं को प्रदान करने वाली हैं. अत: मुझे भी आप ऋद्धि प्रदान करें, आपको नमस्कार है. जो भी इस विधि से श्रीपंचमी का व्रत करता है वह अपने इक्कीस कुलों के साथ लक्ष्मी लोक में निवास करते है. जो सौभाग्यवती स्त्री इस व्रत को करती है वह सौभाग्य, रुप, संतान और धन से संपन्न होती है तथा पति को प्रिय होती है.
लक्ष्मी जी के नाम इस प्रकार हैं – लक्ष्मी, श्री, कमला, विद्या, माता, विष्णुप्रिया, सती, पद्माहस्ता, पद्माक्षी, पद्मासुंदरी, भूतेश्वरि, नित्या, सत्या, सर्वगता, शुभा, विष्णुपत्नी,महादेवी, क्षीरोदतनया (क्षीरसागर की कन्या), रमा, अनन्तलोक नाभि (अनन्त लोकों की उत्पत्ति का केन्द्र स्थल), भू लीला, सर्वसुखप्रदा, रूक्मिणी, सर्ववेदवती, सरस्वती, गौरी, शान्ति, स्वाहा, स्वधा, रति, नारायणवरारोहा (श्रीविष्णु की सुंदर पत्नी) तथा विष्णोर्नित्यानुपायिनी (जो सदा श्रीविष्णु के समीप रहती हैं). जो प्रात: काल उठकर इन संपूर्ण नामों का पाठ करता है उसे अत्यधिक संपत्ति तथा विशुद्ध धन धान्य की प्राप्ति होती है.
हिरण्यवर्णा; हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं विष्णोरनपगामिनीम् ।।
गन्धद्वारां दुराधर्षा नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरी सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है – जिनके श्रीअंगों का रंग सुवर्ण के समान सुंदर एवं गौर है, जो सोने चाँदी के हारों से सुशोभित रहती हैं और सबको आह्लादित करने वाली हैं. भगवान श्रीविष्णु से जिनका कभी वियोग नहीं होता, जो स्वर्णमयी कान्ति धारण करती है. उत्तम लक्षणों से विभूषित होने के कारण जिनका नाम लक्ष्मी है, जो सभी प्रकार की सुगंधों का द्वार है. जिनको परास्त करना कठिन है, जो सदा सभी अंगों से पुष्ट रहती हैं, गाय के सूखे गोबर में जिनका निवास है और जो समस्त प्राणियों की अधीश्वरी हैं, उन भगवती देवी का मैं यहाँ आह्वान करता हूँ.