दम्भकी तपस्या और विष्णुद्वारा उसे पुत्र – प्राप्तिका वरदान, शंखचूड का जन्म, तप और उसे वरप्राप्ति, और गांधर्व विवाह की विधिसे तुलसीका पानिग्रहण करना

सनत्कुमारजी कहा – मुने ! अब शम्भु का दूसरा चरित्र प्रेमपूर्वक श्रवण करो | उसके सुनने-मात्र से शिवभक्ति सुदृढ़ हो जाती है | व्यासजी ! शंखचूढ नामक एक महावीर दानव था, जो देवों के लिये कण्टकस्वरुप था | उसे शिवजीने रण के मुहानेपर त्रिशूल से मार डाला था | शिवजीका वह दिव्य चरित्र परम पावन तथा पापनाशक है | तुमपर अधिक स्नेह होनेके कारण मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमपूर्वक उसे श्रवण करो |
ब्रह्मा के पुत्र जो महर्षि मरीचि थे, उनके पुत्र कश्यप हुए | ये मननशील, धर्मिष्ठ, सृष्टिकर्ता, विद्यासम्पन्न तथा प्रजापति थे | दक्षने प्रसन्न होकर अपनी तेरह कन्याओं का विवाह इनके साथ कर दिया | उनकी संतानों का इतना अधिक विस्तार हुआ कि उसका वर्णन करना कठिन है | उन कश्यप – पत्नियों में एक का नाम दनु था | वह श्रेष्ठ सुन्दरी तथा महारूपवती थी | उस साध्वीका सौभाग्य बढ़ा हुआ था | मुने ! उस दनु के बहुत-से महाबली पुत्र उत्पन्न हुए | विस्तारभय से उनके नाम नहीं गिनाये जा रहे हैं | उनमे एक का नाम विप्रचिति था, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न था | उसका पुत्र दम्भ हुआ, जो जितेन्द्रिय, धार्मिक तथा विष्णुभक्त था | जब उसके कोई पुत्र नहीं हुआ, तब उस वीर को चिंता व्याप्त हो गयी |
उसने शुक्राचार्य को गुरु बनाकर उनसे श्रीकृष्ण – मंत्र प्राप्त किया और पुष्कर में जाकर घोर तप करना आरम्भ किया | वहाँ सुदृढ़ आसन लगाकर कृष्ण-मन्त्र का जप करते हुए उसके एक लाख वर्ष बीत गये | तब उस तपस्वी के मस्तक से एक जाज्वल्यमान तेज निकलकर सर्वत्र व्याप्त हो गया | वह तेज इतना दुस्सह था कि उससे सम्पूर्ण देवता, मुनि तथा मनु संतप्त हो उठे | तब वे इंद्र को अगुआ बनाकर ब्रह्मा के शरणापन्न हुए | वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता विधाता को प्रणाम करके उनकी स्तुति की और फिर विशेषरूप से व्याकुल होकर अपना सारा वृत्तान्त उनसे कह सुनाया | उनकी बात सुनकर ब्रह्मा भी उन्हें साथ लेकर वह सारा वृत्तांत विष्णु को सुनाने के लिये वैकुण्ठ को चले | वहाँ पहुँचकर सब लोगोने त्रिलोकी के अधीश्वर तथा रक्षक परमात्मा विष्णु को विनीतभाव से प्रणाम किया और फिर हाथ जोडकर उनकी स्तुति करने लगे |
देवता बोले – देवदेव ! हमें पता नहीं कि यहाँ कौन-सा कारण उत्पन्न हो गया है | हम किसके तेजसे संतप्त हो उठे हैं, यह आप ही बतलाइये | दीनबन्धों ! अपने दु:खी सेवकों के रक्षक तो आप ही है; अत: शरणदाता ! रमानाथ ! हम शरणागतों की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये |
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने ! ब्रह्मा आदि देवताओं के वचन को सुनकर शरणागतवत्सल भगवान विष्णु मुस्कराये और प्रेमपूर्वक बोले |
विष्णुने कहा – अमरो ! शांत रहो, घबराओ मत, भयभीत न होओं | कोई उलट – पलट नहीं होगा; क्योंकि अभी प्रलयका समय नहीं आया है | दम्भ नामक दानवका है, जो मेरा भक्त है और पुत्र की कामनासे तप कर रहा है | मैं उसे वरदान देकर शांत कर दूँगा |
सनत्कुमारजी कहते है – मुने ! भगवान विष्णु के यों कहनेपर ब्रह्मा आदि देवताओं की व्यप्रता जाती रही, वे सभी धैर्य धारण करके अपने-अपने धाम को लौट गये | इधर भगवान अच्युत भी वर प्रदान करने के लिये पुष्करको चल पड़े, जहाँ वह दम्भ नामक दानव तप कर रहा था | वहाँ पहुँचकर श्रीहरि ने अपने मन्त्र का जप करनेवाले भक्त दम्भ को सांत्वना देते हुए मधुर वाणी में कहा – ‘वर माँग !’ तब विष्णुका उपर्युक्त वचन सुनकर और उन्हें आगे उपस्थित देखकर दम्भ बढ़ी भक्ति के साथ उनके चरणों में लोट-पोट हो गया और बारंबार स्तुति करते हुए बोला |
दम्भने कहा – देवाधिदेव ! कमलनयन ! आपको नमस्कार है | रमानाथ ! मुझपर कृपा कीजिये | त्रिलोकेश ! मुझे एक ऐसा वीर पुत्र दीजिये, जो आपका भक्त तथा महान बल-पराक्रम से सम्पन्न हो | वह त्रिलोकी को जीत लें परन्तु देवता उसे पराजित न कर सके |
सनत्कुमारजी कहते है – मुने ! दानवराज दम्भ के यों कहनेपर श्रीहरि ने उसे वह वर दे दिया और उस घोर तप से उसे निवृत्त करके स्वयं अन्तर्धान हो गये | दानवेन्द्र दम्भ की तपस्या सिद्ध हो चुकी थी, जिससे उसका मनोरथ पूर्ण हो गया था; अत: वह भी श्रीहरि के चले जानेपर उस दिशाको नमस्कार करके अपने घर को लौट गया | थोड़े ही समय के उपरान्त उसकी भाग्यवती पत्नी गर्भवती हो गयी | वह अपने तेजसे घर के भीतरी भाग को प्रकाशित करती हुई शोभा पाने लगी | मुने ! श्रीकृष्ण के पार्पदोंका अग्रणी जो सुदामा नामक गोप था, जिसे राधाजीने शाप दे दिया था, वही उसके गर्भ से प्रविष्ट हुआ था | तदनन्तर समय आनेपर साध्वी दम्भ-पत्नी ने एक तेजस्वी बालक को जन्म दिया | तब पिताने बहुत-से मुनीश्वरों को बुलाकर उसका विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न किया | द्विजोत्तम ! उस उस पुत्र के उत्पन्न होनेपर बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया | फिर शुभ दिन आनेपर पिताने उस बालक का ‘शंखचूड़’ ऐसा नामकरण किया | वह अपने पिता के घर में शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भान्ति बढने लगा | वह अत्यंत तेजस्वी था, अत: उसने बचपन में ही सारी विद्याएँ सीख लीन | वह नित्य बालक्रीड़ा करके अपने माता-पिता हर्ष बढाने लगा और अपने समस्त कुटुम्बियों का तो वह विशेषरूप से प्रेम-भाजन हो गया |
तदनंतर जब शंखचूड बड़ा हुआ, तब वह जैगीषव्य मुनि के उपदेश से पुष्कर में जाकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिये भक्तिपूर्वक तपस्या करने लगा | उस समय वह एकाग्रमन हो अपनी इन्दिर्यों को काबूमें करके गुरुपदीष्ट ब्रह्मविद्या का जप करता रहा | यों पुष्कर में तपस्या करते हुए दानवराज शंखचूड को वर देने के लिये लोकगुरु एवं ऐश्वर्यशाली ब्रह्मा शीघ्र ही वहाँ पधारे और उस दानवेन्द्र से बोले – ‘वर माँग ! ब्रह्माजी को देखकर उसने अत्यंत नम्रता से उन्हें अभिवादन किया उअर फिर उत्तम वाणीसे उनकी स्तुति की | तत्पश्चात उसने ब्रह्मासे वर माँगते हुए कहा – ‘भगवन ! मैं देवताओं के लिये अजेय हो जाऊँ|’ तब ब्रह्माजी परम प्रसन्न होकर बोले – ‘ तथास्तु – ऐसा ही होगा |’ फिर उन्होंने शंखचूड को वह दिव्य श्रीकृष्णकवच प्रदान किया, जो जगत के सम्पूर्ण मंगलो का भी मंगल और सर्वत्र विजय प्रदान करनेवाला है | तदनन्तर ब्रह्माजी ने उसे आज्ञा दी कि ‘तुम बदरीवन को जाओ | वहीँ धर्मध्वज की कन्या तुलसी सकामभाव से तपस्या कर रही है | तुम उसके साथ विवाह कर लो |’ यों कहकर ब्रह्माजी उसी क्षण उसके सामने ही तुरंत अन्तर्धान हो गये | तब तप:सिद्ध शंखचूड भी, जिसके सारे मनोरथ तपोबल से पूर्ण हो चुके थे और मुखपर प्रसन्नता खेल रही थी, पुष्कर में ही उस जगत के मंगलों के भी मंगलस्वरूप कवच को गले में बाँच लिया और ब्रह्मा के आज्ञानुसार वह तत्काल ही बदरिकाश्रम को चल पड़ा | वहाँ दानव शंखचूड सहसा उस स्थानपर जा पहुँचा जहा धर्मध्वज की पुत्री तुलसी तप कर रही थी | सुन्दरी तुलसीका रुप अत्यंत कमनीय और मनोहर था | वह उत्तम शील से स्म्पप्न थी | उस सती को देखकर शंखचूड उसके समीप ही ठहर गया और मधुर वाणी में उससे बोला |
शंखचूड ने कहा – सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? तुम यहाँ चुपचाप बैठकर क्या कर रही हो ? यह सारा रहस्य मुझे बतलाओ |
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने ! शंखचूड ये सकाम वचन सुनकर तुलसी ने उससे कहा |
तुलसी बोली – मैं धर्मध्वज की तपस्विनी कन्या हूँ और यहाँ तपोवन में तप कर रही हूँ | आप कौन हैं ? सुखपूर्वक अपने अभीष्ट स्थान को चले जाइये; क्योंकि नारिजाति ब्रह्मा आदि को भी मोह में डाल देनेवाली होती है | यह विषतुल्य, निंदनीय, दोष उत्पन्न करनेवाली, मायारूपिणी तत्जा विचारशीलों को भी श्रुंखला के समान जकड़ लेनेवाली होती है |
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे ! तुलसी जब इस प्रकार रसभरी बातें कहकर चुप हो गयी, तब उसे मुसकराती देखकर शंखचूड ने भी कहना आरम्भ किया |
शंखचूड बोले – देवि ! तुमने जो बात कही है, वह सारी-की-सारी मिथ्या हो, ऐसी बात नहीं हैं | उसमें कुछ सत्य है और कुछ असत्य भी | इसका विवरण मुझसे सुनो | शोभने ! जगत में जितनी पतिव्रता नारियाँ हैं, उनमें तुम अग्रणी हो | मेरा तो ऐसा विचार है कि जैसे मैं पापबुद्धि कामी नही हूँ, उसीप्रकार तुम भी काम-पराधीना नहीं हो | फिर भी इस समय मैं ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम्हारे समीप आया हूँ और गान्धर्व विवाह की विधि से तुम्हे ग्रहण करूँगा |
भद्रे ! क्या तुम मुझे नहीं जानती हो अथवा तुमने कभी मेरा नाम भी नहीं सुना है ? अरे ! देवताओं में भगदड़ डालनेवाला शंखचूड मैं ही हूँ | मैं द्नुका वंशज तथा दम्भ नामक दानव का पुत्र हूँ | पूर्वकाल में मैं श्रीहरिका पार्षद था | मेरा नाम सुदामा गोप था | इस समय मैं राधिकाजी के शाप से दानवराज शंखचूड होकर उत्पन्न हुआ हूँ | ये सारी बातें मुझे ज्ञात हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ है |
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने ! तुलसी के समक्ष यों कहकर शंखचूड चुप हो गया | जब दानवराज ने आदरपूर्वक तुलसी से ऐसा सत्य वचन कहा, तब वह परम प्रसन्न हुई और मुसकराकर कहने लगी |
तुलसी बोली – भद्र पुरुष ! आज आपने अपने सात्त्विक विचार से मुझे पराजित कर दिया है | जो पुरुष स्त्री द्वारा परास्त न हो सके, वह संसार में धन्यवाद का पात्र है; क्योंकि जिसे स्त्री जीत लेती है, वह पुरुष सदाचारी होते हुए भी सदा अपावन बना रहता हैं | देवता, पितर और समस्त मानव उसकी निंदा करते है | जननाशौच तथा मरणासौच में ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों और वैश्य पन्द्रह दिनों में शुद्ध हो जाता हैं तथा शुद्र की शुद्धि एक मासमें हो जाती है – ऐसा वेदका अनुशासन है; परन्तु स्त्री से पराजित हुए पुरुष की शुद्धि चितादाह के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से सम्भव ही नहीं है | इसी कारण उसके पितर उसके द्वारा दिये गये पिंड-तर्पण आदिको इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते तथा देवता भी उसके द्वारा अर्पित किये गये पुष्प-फल आदिको स्वीकार नहीं करते | जिसका मन स्त्रियोंद्वारा आहत हो जाता है, उसके ज्ञान, उत्तम तप, जप, होम, पूजन, विद्या और दान से क्या लाभ ? अर्थात उसके ये सभी निष्फल हो जाते हैं | मैंने आपके विद्या, प्रभाव और ज्ञान की जानकारी के लिये ही आपकी परीक्षा ली है, क्योंकि कामिनी को चाहिये कि वह अपने मनोनीत कान्त की परीक्षा करके ही उसे पतिरूप से वरण करे |
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी ! जिस समय तुलसी यों वार्तालाप कर रही थी, उसी समय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा वहाँ आ पहुँचे और इस प्रकार कहने लगे |
ब्रह्माजीने कहा – शंखचूड ! तुम इसके साथ क्या व्यर्थ में वाद-विवाद कर रहे हो ? तुम गान्धर्व विवाह की विधिसे इसका पाणिग्रहण करो; क्योंकि निश्चय ही तुम पुरुषरत्न हो और यह सती-साध्वी नारियों में रत्नस्वरूपा है | ऐसी दशा में निपुणाका निपुण के साथ समागम गुणकारी ही होगा | सती-साध्वी तुलसी ! तू ऐसे गुणवान कान्त की क्या परीक्षा ले रही हैं ? यह तो देवताओं, असुरों तथा दानवों का मान मर्दन करनेवाला है | सुन्दरी ! तू इसके साथ सम्पूर्ण लोकों में सर्वदा उत्तम – उत्तम स्थानोंपर चिरकालतक यथेष्ट विहार कर | शरीरान्त होनेपर यह पुन: गोलोक में श्रीकृष्ण को ही प्राप्त होगा और इसकी मृत्यु हो जानेपर तू भी वैकुण्ठमें चतुर्भुज भगवान को प्राप्त करेगी |
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने ! इसप्रकार आशीर्वाद देकर ब्रह्मा अपने धामको चले गये | तब दानव शंखचूड ने गान्धर्व – विवाह की विधि से तुलसी का पाणिग्रहण किया | यों तुलसी के साथ विवाह करके वह अपने पिता के स्थान को चला गया और मनोरम भवन में उस रमणी के साथ विहार करने लगा |