गजासुर की तपस्या, वर-प्राप्ति और उसका अत्याचार, शिवद्वारा उसका वध, कृत्तिवासा नामसे विख्यात होना तथा कृत्तिवासेश्वर – लिंग की स्थापना करना
गजासुर की तपस्या, वर-प्राप्ति और उसका अत्याचार, शिवद्वारा उसका वध, कृत्तिवासा नामसे विख्यात होना तथा कृत्तिवासेश्वर – लिंग की स्थापना करना
गजासुर की तपस्या, वर-प्राप्ति और उसका अत्याचार, शिवद्वारा उसका वध, कृत्तिवासा नामसे विख्यात होना तथा कृत्तिवासेश्वर – लिंग की स्थापना करना
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी ! अब परम प्रेमपूर्वक शशिमौलि शिव के उस चरित्र को श्रवण करो, जिसमें उन्होंने त्रिशूलद्वारा दानवराज गजासुरका वध किया था | गजासुर महिवासुरका पुत्र था | जब उसने सुना कि देवताओं से प्रेरित होकर देवीने मेरे पिताको मार दिया था, तब उसका बदला लेने की भावना से उसने घोर तप किया | इसके तपकी ज्वाला से सब जलने लगे | देवताओं ने जाकर ब्रह्माजी से अपना दुःख कहा, तब ब्रह्माजी ने उसके सामने प्रकट होकर उसके प्रार्थनानुसार उसे वरदान दे दिया कि वह काम के वश होनेवाले किसी भी स्त्री या पुरुष से नहीं मरेगा, महाबली और सबसे अजेय होगा |
वर पाकर वह गर्व में भर गया | सब दिशाओं तथा सब लोकपालों के स्थानोंपर उसने अधिकार कर लिया | अंतमे भगवान शंकर की राजधानी आनंदवन काशी में जाकर वह सबको सताने लगा | देवताओं ने भगवान शंकर से प्रार्थना की | शंकर कामविजयी हैं ही | उन्होंने घोर युद्ध में उसे हराकर त्रिशूल में पिरों लिया | तब उसने भगवान शंकर का स्तवन किया | शंकर ने उसपर प्रसन्न होकर इच्छित वर माँगने को कहा |
तब गजासुर ने कहा – दिगम्बरस्वरूप महेशान ! यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो अपने त्रिशूल की अग्नि से पवित्र हुए मेरे इस चर्म को आप सदा धारण किये रहे | विभो ! मैं पुण्य गंधों की निधि हूँ, इसलिये मेरा यह चर्म चिरकालतक उग्र तपरूपी अग्नि की ज्वाला में पड़कर भी दग्ध नहीं हुआ हैं | दिगम्बर ! यदि मेरा यह चर्म पुण्यवान न होता तो रणांगण में इसे आपके अंगों का संग कैसे प्राप्त होता | शंकर ! यदि आप तुष्ट हैं तो मुझे एक दूसरा वर और दीजिये | आजसे आपका नाम ‘कृत्तिवासा’ विख्यात हो जाय |
सनत्कुमारजी कहते है – मुने ! गजासुरकी बात सुनकर भक्तवत्सल शंकर ने परम प्रसन्नतापूर्वक महिषासुरनन्दन गज से कहा – ‘तथास्तु’ – अच्छा, ऐसा ही होगा | तदनन्तर प्रसन्नत्मा भक्तप्रिय महेशान उस दानवराज गजसे, जिसका मन भक्ति के कारण निर्मल हो गया था, पुन: बोले |
ईश्वर ने कहा – दानवराज ! तेरा वह पावन शरीर मेरे इस मुक्तिसाधक क्षेत्र काशी में मेरे लिंग के रूप में स्थित हो जाय | इसका नाम कृत्तिवासेश्वर होगा ! यह समस्त प्राणियों के लिये मुक्तिदाता, महान पातकों का विनाशक, सम्पूर्ण लिंगों में शिरोमणि और मोक्षप्रद होगा | यों कहकर देवेश्वर दिगम्बर शिवने गजासुर के उस विशाल चर्म को लेकर ओढ़ लिया |
मुनीश्वर ! उस दिन बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया | काशीनिवासी सारी जनता तथा प्रमथगण हर्षमग्न हो गये | विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं का मन हर्ष से परिपूर्ण हो गया | ये हाथ जोडकर महेश्वर को नमस्कार करके उनकी स्तुति करने लगे |