जम्बूद्वीप में सूर्यनारायण की आराधना के तीन प्रमुख स्थान दुर्वासा मुनिका साम्ब को शाप देना

सुमन्तु मुनि बोले – राजन ! ब्रह्माजी से इसप्रकार उपदेश प्राप्तकर याज्ञवल्क्य मुनिने सूर्यभगवान् की आराधना की, जिसके प्रभाव से उन्हें सालोक्य-मुक्ति प्राप्त हुई | अत: भगवान् सूर्य की उपासना करके आप भी उस देवदुर्लभ मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे | राजा शतानीक ने पूछा – मुने ! जम्बूद्वीप में भगवान् सूर्यदेव का आदि स्थान कहाँ है ? जहा विधिपूर्वक आराधना करनेसे शीघ्र ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो सके | सुमन्तु मुनिने कहा – राजन! इस जम्बूद्वीप में भगवान् सूर्यनारायण मुख्य तीन स्थान है | प्रथम इन्द्रवन हैं, दूसरा मुंडीर तथा तीसरा तीनों लोकों में प्रसिद्ध कालप्रिय (कालपी) नामक स्थान है | इस द्वीप में इन तीनों के अतिरिक्त एक अन्य स्थान भी ब्रह्माजी ने बतलाया है, जो चंद्रभागा नदी के तटपर अवस्थित है, जिसको साम्बपुर भी कहा जाता है, वहाँ भगवान् सूर्यनारायण साम्ब की भक्ति से प्रसन्न होकर लोककल्याण के लिये अपने द्वादश रूपों में से मित्र-रूप में निवास करते हैं | जो भक्तिपूर्वक उनका पूजन करता है, उसको वे स्वीकार करते हैं | राजा शतानीक ने पुन: पूछा – महामुने ! साम्ब कौन है ? किसका पुत्र है ? भगवान् सूर्य ने उसके ऊपर अपनी कृपा क्यों की ? यह भी आप बताने की कृपा करें | सुमन्तु मुनिने कहा – राजन ! संसार में द्वादश आदित्य प्रसिद्ध हैं, उनमे से विष्णु नामके जो आदित्य हैं, वे इस जगत में वासुदेव श्रीकृष्णरूप में अवतीर्ण हुए | उनकी जाम्बवती नामकी पत्नी से महाबलशाली साम्ब नामक पुत्र हुआ | वह शापवश कुष्ठ-रोग से ग्रस्त हो गया | उससे मुक्त होने के लिये उसने भगवान् सूर्यनारायण की आराधना की और उसीने अपने नाम से साम्बपुर नामक एक नगर बसाया और यहींपर भगवान् सूर्यनारायण की प्रथम प्रतिमा प्रतिष्ठापित की | राजा शतानीक ने पूछा – महाराज ! साम्ब के द्वारा ऐसा कौन-सा अपराध हुआ था, जिससे उसे इतना कठोर शाप मिला | थोड़े से अपराधपर तो शाप नहीं मिलता | सुमन्तु मुनिने कहा – राजन ! इस वृत्तान्त का वर्णन हम संक्षेप में कर रहे हैं, आप सावधान होकर सुनें | एक समय रूद्र के अवतारभूत दुर्वासा मुनि तीनों लोकों में विचरण करते हुए द्वारकापूरी में आये, परन्तु पीले-पीले नेत्रों से युक्त कृश-शरीर, अत्यंत विकृत रूपवाले दुर्वासा को देखकर साम्ब अपने सुंदर स्वरुप के अहंकार में आकर उनके देखने, चलने आदि चेष्टाओं की नकल करने लगे | उनके मुख के समान अपना ही विकृत मुख बनाकर उन्हीं की भाँती चलने लगे | यह देखकर और ‘साम्ब को रूप तथा यौवन का अत्यंत अभिमान हैं’ यह समझकर दुर्वासा मुनिको अत्यधिक क्रोध हो आया | वे क्रोध से काँपते हुए यह कह उठे – ‘साम्ब ! मुझे कुरूप और अपने को अति रूपसम्पन्न मानकर तूने मेरा परिहास किया हैं | जा, तू शीघ्र ही कुष्ठरोग से ग्रस्त हो जायगा |’ ऐसे ही एक बार पुन: परिहास किये जाने के कारण दुर्वासा मुनिको फिर शाप देना पीडीए और उसी शाप के फलस्वरूप साम्बसे लोहे का एक मुसल उत्पन्न हुआ, जो समस्त यदुवंशियों के विनाश का कारण बना | अत: देवता, गुरु और ब्राह्मण आदि की अवज्ञा बुद्धिमान पुरुष को कभी नहीं करनी चाहिये | इन लोगों के समक्ष सदैव विनम्र ही बना रहना चाहिये और सदा मधुर वाणी ही बोलनी चाहिये | राजन ! ब्रह्माजी ने भगवान् शिव के समक्ष जो दो श्लोक पढ़े थे, क्या उनको आपने सुना नहीं है ? यो धर्मशीलो जितमानरोषो विद्याविनीतो न परोपतापी | स्वदारतुष्ट: परदारवर्जितो न तस्य लोके भयमस्ति किंचित || न तथा शशी न सलिलं न चंदन नैव शीतलच्छाया | प्रल्हादयति पुरुषं यथा हिता मधुरभाषिणी वाणी || (ब्राह्मपर्व ७३/४७-४८) जो धर्मात्मा है तथा जिसने सम्मान एवं क्रोधपर विजय प्राप्त कर ली है, विध्यासे युक्त और विनम्र है, दुसरे को संताप नहीं देता, अपनी स्त्री से संतुष्ट है तथा परायी स्त्री का परित्याग करनेवाला हैं, ऐसे मनुष्य के लिये संसार में किंचिन्मात्र भी भय नहीं हैं |’ ‘पुरुषको चन्द्रमा, जल, चंदन और शीतल छाया वैसा आनंदित नहीं पर पाते हैं, जैसा आनंद उसे हितकारी मधुर वाणी सुननेसे प्राप्त होता है |’ राजन ! इसप्रकार दुर्वासा मुनि के शाप से साम्ब को कुष्ठरोग हुआ था | तदनंतर उसने भगवान् सूर्यनारायण की आराधना करके पुन: अपने सुंदर रूप तथा आरोग्य को प्राप्त किया और अपने नाम का साम्बपुर नामक एक नगर बसाकर उसमें भगवान् सूर्य को प्रतिष्ठापित किया |