मार्गशीर्ष माह में श्रीपंचमी व्रत कथा
एक बार राजा युधिष्ठिर जी श्रीकृष्ण जी से पूछते हैं – “भगवन तीनों लोकों में लक्ष्मी दुर्लभ है लेकिन व्रत, होम, तप, जप, नमस्कार आदि किस कर्म के करने से स्थिर लक्ष्मी प्राप्त होती हैं? भगवन ! आप सब कुछ जानने वाले हैं इसलिए कृपा कर इसका वर्णन करें. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – महाराज ! कहा गया है कि प्राचीन काल में भृगु मुनि की “ख्याति” नामक स्त्री से लक्ष्मी जी का आविर्भाव हुआ है. भृगु जी ने विष्णु जी के साथ लक्ष्मी का विवाह कर दिया था. लक्ष्मी जी भी संसार के पति विष्णु जी को अपने वर रुप में पाकर अपने को कृतार्थ समझने लगी. इसके बाद वह अपने कृपाकटाक्ष से संपूर्ण जगत को आनन्दित करने लगी.
अब लक्ष्मी जी के प्रभाव से ही प्रजा में क्षेम व सुभिक्ष होने लगा. सभी उपद्रव शांत हो गए, ब्राह्मण हवन करने लगे, देवगण अविष्य भोजन प्राप्त करने लगे. राजा प्रसन्नतापूर्वक चारों वर्णों की रक्षा करने लगे. अब देवताओं को अति आनन्द में निमग्न देखकर विरोचन जैसे दैत्यगण लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए तपस्या तथा यज्ञ आदि करने लगे. वह सब सदाचारी व धार्मिक हो गए और फिर दैत्यों के पराक्रम से सारा संसार आक्रांत हो गया.
कुछ समय बाद देवताओं को लक्ष्मी का मद हो गया, अब वह शौच, पवित्रता, सत्यता और सभी उत्तम आचार भूलने लगे. देवताओं को सत्य, शील तथा पवित्रता से रहित देखकर लक्ष्मी जी दैत्यों के पास चली गई और देवगण श्रीविहनी हो गए. दैत्यों भी लक्ष्मी जी को पाने पर बहुत गर्व से भर गए और वह कहने लगे “मैं ही देवता हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही ब्राह्मण हूँ, सम्पूर्ण जगत मेरा ही स्वरुप है, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि सब मैं ही हूँ.” इस तरह से दैत्य अहंकार से युक्त होकर अनेकों प्रकार के अनर्थ करने लगे.
अब अहंकार से मतिभ्रष्ट दैत्यों की भी यह दशा देख लक्ष्मी जी व्याकुल हो क्षीरसागर में चली गई. क्षीरसागर में लक्ष्मी जी के प्रवेश करने से तीनों लोक श्रीविहीन होने से निस्तेज से हो गए. अब देवराज इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति से पूछा – महाराज ! कोई ऎसा व्रत या अनुष्ठान बताएँ जिसके करने से पुन: स्थिर लक्ष्मी जी की प्राप्ति हो जाए.
इन्द्रराज की बात सुनकर बृहस्पति जी कहते हैं – देवेन्द्र! मैं आपको अत्यंत गोपनीय श्रीपंचमीव्रत का विधान बतलाता हूँ जिसे करने से आपका अभीष्ट सिद्ध होगा. ऎसा कहकर देवगुरु बृहस्पति ने देवराज इन्द्र को श्रीपंचमी व्रत करने की सारी विधि बतलाई. बृहस्पति जी के कहे अनुसार इन्द्र ने इस व्रत का विधिवत आचरण किया. देवराज इन्द्र को यह व्रत करते हुए देख विष्णु आदि सभी देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस,सिद्ध, विधाधर, नाग ब्राह्मण, ऋषिगण तथा राजागण सभी यह व्रत करने लगे. कुछ काल तक यह व्रत करने पर उत्तम बल और तेज पाकर सभी ने विचार किया कि समुद्र को मथकर लक्ष्मी और अमृत को ग्रहण करना चाहिए.
इस विचार के आने पर देवता तथा असुर मन्दर पर्वत को मथानी(दही मथने वाली) और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन करने लगते हैं. मंथन करने पर सबसे पहले शीतल किरणों वाले उज्जवल चन्द्रमा प्रकट होते हैं. उसके बाद देवी लक्ष्मी प्रकट होती हैं. लक्ष्मी जी के कृपा कटाक्ष को पाकर सभी देवता और दैत्य परम आनन्दित होते हैं. भगवान विष्णु ने इस श्रीलक्ष्मी पंचमी का व्रत किया था जिसके परिणाम से देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु के वक्ष स्थल का आश्रय ग्रहण किया.
इन्द्र ने भी इस व्रत को किया था जिससे उन्हें त्रिभुवन का राज्य प्राप्त हुआ. लेकिन दैत्यों ने तामस भाव से इस व्रत को किया था, इसलिए ऎश्वर्य पाकर भी वे ऎश्वर्यहीन हो जाते हैं. बृहस्पति जी कहते हैं – महाराज! इस प्रकार इस व्रत के प्रभाव से श्रीविहीन संपूर्ण जगत फिर से श्रीयुक्त हो गया.
महाराज युधिष्ठिर सारी कहानी जानने के बाद कहते हैं – यदुत्तम! यह श्रीपंचमी व्रत किस विधि से किया जाता है? इसे कब आरंभ किया जाता है और कब इसका परायण होता है. कृपा आप सब विस्तार से बताएँ.