महर्षि च्यवन की कथा एवं पुष्पद्वितीया – व्रत की महिमा
सुमन्तु मुनि बोले – द्वितीया तिथि को च्यवन ऋषि ने इन्द्र के सम्मुख यज्ञ में अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया था |
राजाने पूछा – महाराज ! इन्द्र के सम्मुख किस विधि से अश्विनीकुमारों उन्होंने सोमरस पिलाया? क्या च्यवनऋषि की तपस्या के प्रभाव की प्रबलतासे इन्द्र कुछ भी करनेमे समर्थ नही हुए ?
सुमन्तु मुनिने कहा – सत्ययुगकी पूर्वसंध्यामें गंगा के तटपर समाधिस्थ हो च्यवनमुनि बहुत दिनोसे तपस्यामें रत थे | एक समय अपनी सेना और अन्त:पुरके परिजनोंको साथ लेकर महाराज शर्याति गंगा–स्नानके लिये वहाँ आये | उन्होंने च्यवनऋषिके आश्रमके समीप आकर गंगा-स्नान सम्पत्र किया तथा देवताओ की आराधना की और पितरोका तर्पण किया | तदनन्तर जब वे अपने नगर की और जाने को उद्यत हुए तो उसी समय उनकी सभी सेनाएँ व्याकुल हो गयीं और मूत्र तथा विष्ठा उनके अचानक हो बंद हो गये, आँखोंसे कुछ भी नहीं दिखायी दिया | सेनाकी यह दशा देखकर राजा घबड़ा उठे | राजा शर्याति प्रत्येक व्यत्किसे पूछने लगे – यह तपस्वी च्यवनमुनिका पवित्र आश्रम है, किसीने कुछ भी नहीं कहा |
सुकन्याने अपने पितासे कहा – महाराज ! मैंने एक आश्रर्य देखा, जिसका मैं वर्णन कर रही हूँ | अपनी सहेलियोंके साथ मैं वन–विहार कर रही थी कि एक ओर से मुझे यह शब्द सुनायी पड़ा –‘सुकन्ये ! तुम इधर आओ |’ यह सुनकर मैं अपनी सखियोंके साथ उस शब्दकी ओर गयी | वहाँ जाकर मैंने एक बहुत ऊँचा वल्मीक देखा | उसके अंदरके छिद्रोमें दीपक के समान देदीप्यमान दो पदार्थ मुझे दिखलायी पड़े | उन्हें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये पद्मरागमणि के समान क्या चमक रहे हैं | मैंने अपनी मुर्खता और चंचलता से कुशाके अग्रभागसे वल्मीक के प्रकाशयुक्त छिद्रों बाँध दिया, जिससे वह तेज शान्त हो गया |
यह सुनकर राजा बहुत व्याकुल हो गये और अपनी कन्या सुकन्याको लेकर वहाँ गये जहाँ च्यवनमुनि तपस्यामें रत थे | च्यवनऋषि को वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे हुए इतने दिन व्यतीत हो गये थे कि उनके ऊपर वल्मीक बन गया था | जिन तेजस्वी छिदोंको सुकन्याने कुशके अग्रभागसे बाँध दिया था, वे उस महातपस्वी के प्रकाशमान नेत्र थे | राजा वहाँ पहुँचकर अतिशय दीनता के साथ विनती करने लगे |
राजा बोले – महाराज ! मेरी कन्या से बहुत बड़ा अपराध हो गया है | कृपाकर क्षमा करें |
च्यवनमुनि ने कहा – अपराध तो मैंने क्षमा किया, परंतु अपनी कन्याका मेरे साथ विवाह कर दो, इसीमें तुम्हारा कल्याण है | मुनि का वचन सुनकर राजाने शीघ्र ही सुकन्या का च्यवनऋषि से विवाह कर दिया | सभी सेनाएँ सुखी हो गयी और मुनि को प्रसन्नकर सुखपूर्वक राजा अपने नगर में आकर राज्य करने लगे | सुकन्या भी विवाह के बाद भक्तिपूर्वक मुनि की सेवा करने लगी | राजवस्त्र, आभूषण उसने उतार दिये और वृक्ष की छाल तथा मृगचर्म धारण कर लिया | इसप्रकार मुनि की सेवा करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया और वसन्त ऋतू आयी | किसी दिन मुनिने संतान-प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी सुकन्या का आव्हान किया | इसपर सुकन्या ने अतिशय विनयभाव से विनती की |
सुकन्या बोली – महाराज ! आपकी आज्ञा मैं किसी प्रकार भी टाल नहीं सकती, किंतु इसके लिये आपको युवावस्था तथा सुंदर वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत कमनीय स्वरुप धारण करना चाहिये |
च्यवनमुनि ने उदास होकर कहा – न मेरा उत्तम रूप है और न तुम्हारे पिता के समान मेरे पास धन हैं, जिससे सभी भोग-समाग्रियों को मैं एकत्र कर सकूँ |
सुकन्या बोली – महाराज ! आप अपने तप के प्रभाव से सब कुछ करने में समर्थ हैं | आपके लिये यह कौन-सी बड़ी बात है ?
च्यवनमुनि ने कहा – राजपुत्रि ! इस काम के लिए मैं अपनी तपस्या व्यर्थ नही करूँगा | इतना कहकर वे पहले की तरह तपस्या करने लगे | सुकन्या भी उनकी सेवामें तत्पर हो गयी |
इसप्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद अश्विनीकुमार उसी मार्ग से चले जा रहे थे कि उनकी दृष्टि सुकन्या पर पड़ी |
अश्विनीकुमारों ने कहा – भद्रे ! तुम कौन हो ? और इस घोर वन में अकेली क्यों रहती हो ?
सुकन्याने कहा – मैं राजा शर्याति की सुकन्या नाम की पुत्री हूँ | मेरे पति च्यवन ऋषि यहाँ तपस्या कर रहे हैं, उन्हींकी सेवा के लिये मैं यहाँ उनके समीप रहती हूँ | कहिये, आप लोग कौन है ?
अश्विनीकुमारों ने कहा – हम देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार हैं | इस वृद्ध पति से तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? हम दोनों में किसी एकका वरण कर लो |
सुकन्या ने कहा – देवताओं ! आपक ऐसा कहना ठीक नहीं | मैं पतिव्रता हूँ और सब प्रकारसे अनुरक्त होकर दिन-रात अपने पति की सेवा करती हूँ |
अश्विनीकुमारों ने कहा – यदि ऐसी बात है तो हम तुम्हारे पतिदेव को अपने उपचार के द्वारा अपने समान स्वस्थ एवं सुंदर बना देंगे और जब हम तीनों गंगा में स्नान कर बाहर निकले फिर जिसे तुम पतिरूप में वरण करना चाहो कर लेना |
सुकन्या ने कहा – मैं बिना पति की आज्ञा के कुछ नहीं कह सकती |
अश्विनीकुमारों ने कहा – तुम अपने पतिसे पूछ आओं, तबतक हम यहीं प्रतीक्षा में रहेंगे | सुकन्याने च्यवनमुनि के पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृतांत बतलाया | अश्विनीकुमारों की बात स्वीकार कर च्यवनमुनि सुकन्या को लेकर उनके पास आये |
च्यवनमुनि ने कहा –अश्विनीकुमारो ! आपकी शर्त हमे स्वीकार हैं | आप हमें उत्तम रूपवान बना दें, फिर सुकन्या चाहे जिसे वरण करें | च्यवनमुनि के इतना कहनेपर अश्विनीकुमार च्यवनमुनि को लेकर गंगाजी के जल में प्रविष्ट हो गये आयर कुछ देर बाद तीनों ही बाहर निकले | सुकन्या ने देखा कि ये तीनों तो समान रूप, समान अवस्था तथा समान वस्त्राभूषणों से अलंकृत हैं, फिर इनमें मेरे पति च्यवनमुनि कैन हैं ? वह कुछ निश्चित न कर स्की और व्याकुल होकर अश्विनीकुमारों की प्रार्थना करने लगी |
सुकन्या बोली – देवो ! अत्यन्त कुरूप पतिदेव का भी मैंने परित्याग नही किया था | अब तो आपकी कृपा से उनका रूप आपके समान सुंदर हो गया है, फिर मैं कैसे उनका परित्याग कर सकती हूँ | मैं आपकी शरण हूँ, मुझपर कृपा कीजिये |
सुकन्या की इस प्रार्थना से अश्विनीकुमार प्रसन्न हो गये और उन्होंने देवताओं के चिन्हों को धारण कर लिया | सुकन्या ने देखा कि तीन पुरुषों से दो की पलके गिर नहीं रही हैं और उनके चरण भूमि को स्पर्श नहीं कर रहे हैं, किंतु जो तीसरा पुरुष है, वह भूमिपर खड़ा हैं और उसकी पलके भी गिर रही हैं | इन चिन्हों को देखकर सुकन्याने निश्चित कर लिया कि ये तीसरे पुरुष ही मेरे स्वामी च्यवनमुनि हैं | तब उसने उनका वरण कर लिया | उसी समय आकाश में उसपर पुष्प-वृष्टि होने लगी और देवगण दुन्दुभि बजाने लगे |
च्यवनमुनि ने अश्विनीकुमारों से कहा – देवो ! आप लोगों ने मुझपर बहुत उपकार किया हैं, जिसके फलस्वरूप मुझे उत्तम रूप और उत्तम पत्नी प्राप्त हुई | अब मैं आप लोगों का क्या प्रत्युपकार करूँ, क्योंकि जो उपकार करनेवाले का प्रत्युपकार नहीं करता, वह क्रम से इक्कीस नरकों में जाता हैं | इसलिए आपका मैं क्या प्रिय करूँ, आप लोग कहें |
अश्विनीकुमारों ने उनसे कहा – महात्मन ! यदि आप हमारा प्रिय करना ही चाहते हैं तो अन्य देवताओं की तरह हमे भी यज्ञभाग दिलवाइये | च्यवनमुनि ने यह बात स्वीकार कर ली, फिर वे उन्हें बिदाकर अपनी भार्या सुकन्या के साथ अपने आश्रम में आ गये |राजा शर्याति को जब यह सारा वृतान्त ज्ञात हुआ तो वे भी रानी को साथ लेकर सुंदर रूप- प्राप्त महातेजस्वी च्यवनऋषि को देखने आश्रम में आये | राजाने च्यवनमुनि को प्रणाम किया और उन्होंने भी राजा का स्वागत किया | सुकन्या ने अपनी माता का आलिंगन किया | राजा शर्याति अपने जामाता महामुनि च्यवन का उत्तम रूप देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए |
च्यवनमुनि ने राजा से कहा – राजन ! एक महायज्ञ की सामग्री एकत्र कीजिये, हम आपसे यज्ञ करायेंगे | च्यवनमुनि की आज्ञा प्राप्तकर राजा शर्याति अपनी राजधानी लौट आये और यज्ञ-सामग्री एकत्रकर यज्ञ की तैयारी करने लगे | मंत्री, पुरोहित और आचार्य को बुलाकर यज्ञकार्य के लिये उन्हें नियुक्त किया | च्यवनमुनि भी अपनी पत्नी सुकन्या को लेकर यज्ञ-स्थल में पधारे |सभी ऋषिगणों को आमंत्रण देकर यज्ञ में बुलाया गया | विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ हुआ | ऋत्विक अग्निकुण्ड में स्वाहाकार के साथ देवताओं को आहुति देने लगे | सभी देवता अपना-अपना यज्ञ-भाग लेने वहाँ आ पहुँचे च्यवनमुनि के कहने से अश्विनीकुमार भी वहाँ आये | देवराज इन्द्र उनके आने का प्रयोजन समझ गये |
इन्द्र बोले – मुने ! ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओं के वैद्य हैं, इसलिए ये यज्ञ-भाग के अधिकारी नहीं हैं, आप इन्हें आहुतियाँ प्रदान न करवाये |
च्यवनमुनि ने इन्द्र से कहा – ये देवता हैं और इनका मेरे ऊपर बड़ा उपकार हैं, ये मेरे ही आमन्त्रणपर यहाँ पधारे हैं, इसलिए मैं इन्हें अवश्य यज्ञभाग दूँगा | यह सुनकर इन्द्र क्रुद्ध हो उठे और कठोर स्वर में कहने लगे |
इन्द्र बोले – यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो वज्रसे तुमपर मैं प्रहार करूँगा | इन्द्र की ऐसी वाणी सुनकर च्यवनमुनि किंचित भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने अश्विनीकुमारों को यज्ञभाग दे ही दिया, तब तो इन्द्र अत्यंत क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने ज्यों ही च्यवनमुनि पर प्रहार करने के लिये अपना वज्र उठाया त्यों ही च्यवनमुनि ने अपने तप के प्रभाव से इन्द्र का स्तम्भन कर दिया | इन्द्र हाथ में वज्र लिए खड़े ही रह गये |च्यवनमुनि ने अश्विनीकुमारों को यज्ञभाग देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और यज्ञ को पूर्ण किया | उसीसमय वहाँ ब्रह्माजी उपस्थित हुए |
ब्रह्माजी ने च्यवनमुनि से कहा – महामुने ! आप इन्द्र को स्तम्भन-मुक्त कर दें | अश्विनीकुमारों को यज्ञ-भाग दे दें | इन्द्र ने भी स्तम्भन से मुक्त करने के लिए प्रार्थना की |
इन्द्र ने कहा – मुने ! आपके तप की प्रसिद्धि के लिये ही मैंने इन अश्विनीकुमारों को यज्ञ में भाग लेने से रोका था, अब आज से सब यज्ञों में अन्य देवताओं के साथ अश्विनीकुमारों को भी यज्ञभाग मिला करेगा और इनको देवत्व भी प्राप्त होगा | आपके इस तप के प्रभाव को जो सुनेगा अथवा पढ़ेगा, वह भी उत्तम रूप एवं यौवन को प्राप्त करेंगा | इतना कहकर देवराज इन्द्र देवलोक को चले गये और च्यवनमुनि सुकन्या तथा राजा शर्याति के साथ आश्रम पर लौट आये |
वहाँ उन्होंने देखा कि बहुत उत्तम-उत्तम महल बन गये हैं, जिनमें सुंदर उपवन और वापी आदि विहार के लिये बने हुए हैं | भाँती-भाँती की शय्याएं बिछी हुई हैं, विविध रत्नों से जटित आभूषणों तथा उत्तम-उत्तम वस्त्रों के ढेर लगे हैं | यह देखकर सुकन्यासहित च्यवनमुनि अत्यंत प्रसन्न हो गये और उन्होंने यह सब देवराज इन्द्रद्वारा प्रदत्त समझकर उनकी प्रशंसा की |
महामुनि सुमन्तु राजा शतानीक से बोले – राजन ! इसप्रकार द्वितीया तिथि के दिन अश्विनीकुमारों को देवत्व तथा यज्ञभाग प्राप्त हुआ था | अब आप इस द्वितीया तिथि के व्रत का विधान सुने –
शतानीक बोले – जो पुरुष उत्तम रूप की इच्छा करे वह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से व्रत को आरम्भ करे और वर्षपर्यन्त संयमित होकर पुष्प-भोजन करे | जो उत्तम हविष्य-पुष्प उस ऋतू में हो उनका आहार करे | इसप्रकार एक वर्ष व्रतकर सोने-चाँदी के पुष्प बनाकर अथवा कमलपुष्पों को ब्राह्मणों को देकर व्रत सम्पन्न करे | इससे अश्विनीकुमार संतुष्ट होकर उत्तम रूप प्रदान करते हैं | व्रती उत्तम विमानों में बैठकर स्वर्ग में जाकर, कल्पपर्यत विविध सुखों का उपभोग करता हैं | फिर मर्त्यलोक में जन्म लेकर वेद-वेदांगों का ज्ञाता, महादानी, आधि-व्याधियों से रहित, पुत्र-पौत्रों से युक्त, उत्तम पत्नीवाला ब्राह्मण होता है अथवा मध्यदेश के उत्तम नगर में राजा होता है |
राजन ! इस पुष्पद्वितीया – व्रत का विधान मैंने आपको बतलाया | ऐसी ही फलद्वितीया भी होती है, जिसे अशून्यशयना-द्वितीया भी कहते हैं | फलद्वितीया को जो श्रद्धापूर्वक व्रत करता हैं, वह ऋद्धि-सिद्धि को प्राप्तकर अपनी भार्यासहित आनन्द प्राप्त करता हैं |