राजा धर्मवल्लभ और मंत्री सत्यप्रकाश की कथा

वैताल ने पुन: राजासे कहा – राजन ! प्राचीन काल में रमणीय पुण्यपुर (पूना) नगर में धर्मवल्ल्भ नामका एक राजा राज्य करता था | उसका मंत्री सत्यप्रकाश था | मंत्री की स्त्रीका नाम था लक्ष्मी | एक बार राजा धर्मवल्लभ ने मंत्री से कहा – ‘मंत्रीवर ! आनंद के कितने भेद है ? यह मुझे बताओ |’ उसने कहा – ‘महाराज ! आनन्द चार प्रकार के हैं |
१) ब्रह्मचर्याश्रम का आनंद जो ब्रह्मानंद हैं, वह श्रेष्ठ है |
२) गृहस्थाश्रम का विषयानंद मध्यम है |
३) वानप्रस्थ का धर्मानंद सामान्य है और
४) संन्यास में जो शिवानन्द की प्राप्ति है, वह आनंद उत्तमोत्तम है |
राजन ! इनमें गृहस्थाश्रम का विषयानंद स्त्री-प्रधान है, क्योंकि गृहस्थ-आश्रम में स्त्री के बिना सुख नहीं मिलता |’
यह सुनकर राजा अपने अनुकूल धर्मपरायणा पत्नी प्राप्त करनेके लिये अन्य देशमें चला गया, किन्तु उसे मनोनुकूल पत्नी नहीं प्राप्त हुई | तब उसने अपने मंत्री से कहा – ‘मेरे अनुरूप कोई स्त्री ढूंढे |’ यह सुनकर मंत्री विभिन्न देशों में गया | पर जब कहीं भी उसे राजा के योग्य स्त्री नहीं मिली तो वह सिन्धु देशमें आकर समुद्र की ओर बढ़ा | सभी तीर्थों में श्रेष्ठ सिन्धु को देखकर वह प्रसन्न हुआ | मंत्री सत्यप्रकाश ने समुद्र से इसप्रकार प्रार्थना की – ‘सभी रत्नों के आलय, सिन्धुदेश के स्वामिन ! आपको नमस्कार है | शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरण में आया हूँ, गंगा आदि नदियों के स्वामी जलाधीश ! आपको नमस्कार है | मेरे राजाके लिये आप उत्तम स्त्री-रत्न प्रदान करें | यदि ऐसा आप नहीं करेंगे तो मैं अपने प्राण यहीं दे दूँगा |’ नदिपति सागर यह स्तुति सुनकर प्रसन्न हो गये और उसे जलमें विद्रुम के पत्तोंवाले, मुक्तारुपी फलसे समन्वित एक वृक्ष को दिखाया, जिसके ऊपर मनोरमा, सुकुमारी एक सुन्दरी कन्या स्थित थी | पर कुछ ही क्षणों में देखते ही देखते वह कन्या वृक्षसहित पुन: जलमें लीन हो गयी |
यह देखकर अतिशय आश्चर्यचकित होकर मंत्री सत्यप्रकाश पुन: राजा के पास लौट आया और उसने सारी बातें राजाको सुनायी | पुन: दोनों समुद्र के किनारे आये | राजाने भी मंत्री के समान ही कन्या को वृक्षपर बैठा देखा और राजा के देखते ही वह कन्या पूर्ववत जल में प्रविष्ट हो गयी | इस अद्भुत दृश्य को देखकर राजा भी समुद्र में प्रविष्ट हो गया तथा उसी कन्या के साथ पाताल में पहुँच गया और मंत्री वापस लौट आया |

राजाने कहा – वरानने ! मैं तुम्हारे लिये यहाँ आया हूँ | गान्धर्व विवाह से मुझे प्राप्त करो | उसने हँसकर कहा – ‘नृपश्रेष्ठ ! जब कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि आयेगी, तब मैं देवी-मंदिर में आकर तुम्हें मिलूँगी |’ राजा लौट आया और पुन: कृष्ण चतुर्दशी के दिन हाथ में तलवार लेकर देवी के मंदिर में गया | वह कन्या राजासे पूर्व ही मंदिर में पहुँच चुकी थी | उसीसमय बकवाहन नामके एक राक्षस ने आकर उस कन्याका स्पर्श किया | यह देखकर राजा क्रोधान्ध हो गया | उसने राक्षस का सिर तलवार से काट दिया | पुन: उस कन्यासे कहा – ‘भामिनी ! तुम सत्य बताओ, यह कौन था और यहाँ कैसे आया ?’ उसने कहा- ‘राजन ! मैं विद्याधर की कन्या हूँ | मेरा नाम मद्वती है | मैं पिताजी की प्रिय कन्या हूँ | एक बार मैं किसी समय वन में गयी थी और भोजन के समय पिता-माता के पास घर में नहीं पहुँच सकित थी | मेरे पिताजी ने ध्यान के द्वारा सारा वृत्तान्त जान लिया, उन्होंने मुझे शाप दे दिया कि ‘मद्वती ! कृष्ण चतुर्दशी को तुमको राक्षस ग्रहण करेगा |’ जब मुझे शाप की बात मालुम हुई, तब मैं रोते हुए पिताजी से पूछा – ‘देव ! मेरी उस शाप से मुक्ति कब होगी ?’ उन्होंने कहा – ‘पुत्री ! कृष्ण चतुर्दशी को कोई राजा तुम्हारा वरण करेगा, तब तुम्हारे शाप की निवृत्ति हो जायगी |’
मद्वती ने कहा – राजन ! आपके अनुग्रह से आज मैं शाप से मुक्त हो गयी हूँ | आपकी आज्ञा पाकर अब मैं अपने पिताके घर जाना चाहती हूँ | यह सुनकर राजाने कहा – ‘तुम मेरे साथ मेरे घर चलो | इसके बाद मैं तुम्हें तुम्हारे पिता के पास ले चलूँगा |’ वह राजा की बात मानकर राजा के महल में आ गयी और राजा से उसका विवाह हो गया | उस राजा के नगर में महान उत्सव हुआ | मंत्री ने देखा कि राजा के साथ एक दिव्य कन्या भी आयी है | कुछ दिनों बाद मंत्री एकाएक मृत्यु को प्राप्त हो गया |
वैताल ने पूछा – राजन ! बताओ, उस मंत्रीके मरने में क्या कारण है ? क्या रहस्य है ?
राजा विक्रम ने कहा – मंत्री सत्यप्रकाश राजा का मित्र और प्रजाका परम हितैषी था | उसके ही समुद्योग से राजा को श्रेष्ठ मद्वती नाम की विद्याधर कन्या रानी के रूप में प्राप्त हुई थी, किन्तु मद्वती के साथ विवाह के बाद मंत्री सत्यप्रकाश ने देखा कि राजा मदवती को पाकर विलासी होते जा रहे है और राज्य एवं प्रजा की उपेक्षा करने लगे हैं | दिन-रात विषय-सुख में ही लिप्त रहने लगे हैं | यह देखकर उसने समझ लिया कि अब शीघ्र ही इस राज्य का विनाश होनेवाला है; क्योंकि जब राजा विषयी एवं स्वार्थी बन जाता है, तब राज्य का नाश अवश्य होता है | ऐसी स्थिति में मेरी मंत्रणाये भी व्यर्थ सिद्ध होगी, अत: राज्य के विनाश को मैं अपनी आँखों से न देखा सकूँ, इसलिये पहले ही मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देता हूँ | वैताल ! यही समझकर मंत्री सत्यप्रकाश ने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया |