राजा रूपसेन तथा वीरवर की कथा
सूतजी बोले – महामुने ! एक बार रुद्र्किंकर वैताल ने सर्वप्रथम भगवान शंकर का ध्यान किया और फिर महाराज विक्रमादित्य से इस प्रकार प्रारम्भ किया –
राजन ! अब आप एक मनोहर कथा सुने | प्राचीन कालमें सर्वसमृद्धिपूर्ण वर्धमान नामक नगर में रूपसेन नाम का एक धर्मात्मा राजा रहता था | उसकी पतिव्रता रानी का नाम विद्वन्माला था | एक दिन राजा के दरवार में वीरवर नामका एक क्षत्रिय गुणी व्यक्ति अपनी पत्नी, कन्या एवं पुत्रके साथ वृत्तिके लिये उपस्थित हुआ | राजाने उसकी विनयपूर्ण बातों को सुनकर प्रतिदिन एक सहस्त्र स्वर्णमुद्रा वेतन निर्धारित कर महल के सिंहद्वारपर रक्षक के रूप में उसकी नियुक्ति कर ली | कुछ दिन बाद राजाने अपने गुप्तचरों से जब उसकी आर्थिक स्थिति का पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वह अपना अधिकांश द्रव्य यज्ञ, तीर्थ, शिव तथा विष्णु के मंदिरों में आराधनादि कार्यो में तथा साधू, ब्राह्मण एवं अनाथों में वितरित कर अत्यल्प शेष से अपने परिजनों का पालन करता है | इससे प्रसन्न होकर राजाने उसकी स्थायी नियुक्ति कर दी |
एक दिन जब आधी रात में मुसलाधार वृष्टि, बादलों की गरज, बिजली की चमक एवं झंझावात से रात्रि की विभीषिका सीमा पार कर रही थी, उसी समय श्मशान से किसी नारी की करुणक्रन्दन-ध्वनि राजाके कानों में पड़ी | राजाने सिंहद्वारपर उपस्थित वीरवर से इस रुदन-ध्वनि का पता लगाने के लिये कहा | जब वीरवर तलवार लेकर चला, तब राजा भी उसके भय की आशंका तथा उसके सहयोग के लिये एक तलवार लेकर गुप्तरूप से स्वयं उसके पीछे लग गया | वीरवर ने श्मशान में पहुँचकर एक स्त्रीको वहाँ रोते देखा और उससे जब इसका कारण पूछा, तब उसने कहा कि, ‘मैं इस राज्य की लक्ष्मी-राष्ट्र्लक्ष्मी हूँ – इसी मास के अंतमें राजा रूपसेन की मृत्यु हो जायगी | राजा की मृत्यु हो जानेपर मैं अनाथ होकर कहाँ जाऊँगी’ – इसी चिंता से मैं रो रही हूँ |
स्वामिभक्त वीरवर ने राजा के दीर्घायु होने का उससे उपाय पूछा | इसपर वह देवी बोली – ‘यदि तुम अपने पुत्र की बलि चंडिकादेवी के सामने दे सको तो राजा के आयुकी रक्षा ही सकती है |’ फिर क्या था, वीरवर उलटे पाँव घर लौट आया और अपनी पत्नी, पुत्र तथा लडकी को जगाकर उनकी सम्मति लेकर उनके साथ चण्डिका के मंदिर में जा पहुँचा | राजा भी गुप्तरूप से उसके पीछे-पीछे सर्वत्र चलता रहा | वीरवर ने देवी की प्रार्थना कर अपने स्वामी की आयु बढाने के लिए अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी | भाईका कटा सिर देखकर दुःखसे उसकी वहिन का ह्रदय विदीर्ण हो गया – वह मर गयी और इसी शोक में उसकी माता की चल बसी | वीरवर इन तीनों का दाह-संस्कार कर स्वयं भी राजाकी आयु की वृद्धि के लिये बलि चढ़ गया |
राजा छिपकर यह सब देख रहा था | उसने देवीकी प्रार्थना कर अपने जीवनको व्यर्थ बताते हुए अपना सिर काटने के लिये ज्यों ही तलवार खींची, त्यों ही देवीने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली –‘राजन ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी आयु तो सुरक्षित हो ही गयी, अब तुम अपनी इच्छानुसार वर माँग लो |’ राजाने देवी से परिजनोंसहित वीरवर को जिलाने की प्रार्थना की | ‘तथास्तु’ कहकर देवी अन्तर्धान हो गयी | राजा प्रसन्न होकर चुपके-से वहाँ से चलकर अपने महल में आकर लेट गया | इधर वीरवर भी चकित होता हुआ और देवी की कृपा मानता हुआ अपने पुनर्जीवित परिवार को घरपर छोडकर राजप्रसाद के सिंहद्वारपर आकर खड़ा हो गया |
अनन्तर राजाने वीरवर को बुलाकर रात में रोनेवाली नारी के रुदन का कारण पूछा, तो वीरवर ने कहा – ‘राजन ! वह तो कोई चुड़ैल थी, मुझे देखते ही वह अदृश्य हो गयी | चिंता की कोई बात नहीं है |’ वीरवर की स्वामिभक्ति और धीरता को देखकर राजा रूपसेन अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने अपनी कन्या का विवाह वीरवर के पुत्र से कर दिया तथा उसे अपना मित्र बना लिया | इतनी कथा कहकर वैताल शांत हो गया | वैताल ने राजा विक्रम से फिर पूछा – ‘राजन ! इस कथा में परस्पर सबने एक दुसरे के लिये स्नेहवश अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, पर सबसे अधिक स्नेह और त्याग किसका था ? वह आप बताइये |’
राजा बोले – यद्यपि सभीने अपने-अपने कर्तव्य का अद्भुत आदर्शउपस्थित किया, फिर भी राजाका स्नेह ही सबसे अधिक मान्य प्रतीत होता है, क्योंकि वीरवर राजसेवक था, उसे अपनी सेवाके प्रतिफल में स्वर्णमुद्राएँ मिलती थी, अत: उसने स्वर्णप्राप्ति की दृष्टि से अपना उत्सर्ग किया, वीरवर की पत्नी पतिव्रता थी, धर्मस्नेही थी, इसलिये उसने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया | बहिनका अपने भाई में प्रेम था, पुत्रका अपने पितामें स्नेह था, यह तो स्वभाववश होता ही है, किन्तु राजा रूपसेन ने महान स्नेहका आदर्श उपस्थित किया, जो कि वे एक समान्य सेवक के लिये भी अपना प्राणोत्सर्ग करनेको उद्यत हो गये, अत: उन्हींका स्नेहमय त्याग महान त्याग है