उमामहेश्वर व्रत की विधि
महाराज युधिष्ठिर ने कहा – भगवन ! जिस व्रत के करने से स्त्रियों को अनेक गुणवान पुत्र-पौत्र, सुवर्ण, वस्त्र और सौभाग्य की प्राप्ति होती है तथा पति-पत्नी का परस्पर वियोग नहीं होता, उस व्रत का आप वर्णन करें |
भगवान् श्रीकृष्ण बोले – महाराज ! सभी व्रतों में श्रेष्ठ एक व्रत हैं, जो उमामहेश्वर-व्रत कहलाता हैं, इस व्रत को करने से स्त्रियों को अनेक सन्तान, दास,दासी, आभूषण, वस्त्र और सौभाग्य की प्राप्ति होती है | इस व्रत को अप्सरा, विद्याधरी, किन्नरी, ऋषिकन्या, सीता, अहल्या, रोहिणी, दमयन्ती, तारा तथा अनसूया आदि सभी ने किया था और अन्य सभी उत्तम स्त्रियाँ भी इस व्रत को करती है | भगवती पार्वती ने सौभाग्य तथा आरोग्य प्रदान करनेवाले और दरिद्रता तथा व्याधि का नाश करनेवाले इस व्रत का दुर्भगा और कुरूपा तथा निर्धन स्त्रियों के हित की दृष्टी से मनुष्यलोक में प्रचार किया |
धर्मपरायणा स्त्री इस व्रत में मार्गशीर्ष मासके शुक्ल पक्षकी तृतीया तिथि को नियमपूर्वक उपवास करे | प्रात: उठकर पवित्र गंगा आदि नदियों में स्नान कर शिव-पार्वती का ध्यान करती हुई यह मन्त्र पढ़े और भगवान् शंकर की अर्धांगिनी भगवती श्रीललिता की पूजा करे –
नमो नमस्ते देवेश उमादेहार्धधारक |
महादेवि नमस्तेऽस्तु हरकायार्धवासिनि ||
‘भगवती उमा को अपने आधे भाग में धारण करनेवाले हे देवदेवेश्वर भगवान् शंकर ! आपको बार-बार नमस्कार है | महादेवि ! भगवती पार्वती ! आप भगवान् शंकर के आधे शरीर में निवास करनेवाली हैं, आपको नमस्कार हैं |’
पुनः घर आकर शरीर की शुद्धि के लिए पंचगव्य पान करे और प्रतिमा के दक्षिण भाग में भगवान् शंकर और वाम भाग में भगवती पार्वती की भावना कर गन्ध, पुष्प, गुग्गुल, धुप, दीप और घी में पकाये गये नैवेद्यों से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करे | इसीप्रकार बारह महीने तक पूजनकर प्रसन्नचित्त हो व्रत का उद्यापन करे | भगवान् शंकर की चाँदी की तथा भगवती पार्वती की सुवर्ण की मूर्ति बनवाकर दोनों को चाँदी के वृषभपर स्थापित कर वस्त्राभूषणों से अलंकृत करे | अनन्तर चंदन, श्वेत पुष्प, श्वेत वस्त्र आदिसे भगवान् शंकर की और कुंकुम, रक्त वस्त्र, रक्त पुष्प आदि से भगवती पार्वती की पूजा करनी चाहिये | फिर शिवभक्त वेदपाठी, शांतचित्त ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये | सभी को दक्षिणा देकर उनकी प्रदक्षिणा करके यह मन्त्र पढना चाहिये –
उमामहेश्वरौ देवौ सर्वलोकपितामहौ |
व्रतेनानेन सुप्रितौ भवेतां मम सर्वदा ||
‘सभी लोकों के पितामह भगवान् शिव एवं पार्वती मेरे इस व्रत के अनुष्ठान से मुझपर सदा प्रसन्न रहें |’
इसप्रकार प्रार्थना करके क्रोधरहित ब्राह्मण को सभी सामप्रियाँ देकर व्रत को समाप्त करे | इस व्रत को जो स्त्री भक्तिपूर्वक करती है, यह शिवजी के समीप एक कल्पतक निवास करती है | तदनंतर मनुष्य-लोक में उत्तम कुल में जन्म ग्रहणकर रूप, यौवन, पुत्र आदि सभी पदार्थो को प्राप्त कर बहुत दिनोंतक अपने पति के साथ सांसारिक सुखों को भोगती है, उसका अपने पति से कभी वियोग नहीं होता और अंत में वह शिव-सायुज्य प्राप्त करती है |