विष्णुद्वारा तुलसी के शील-हरणका वर्णन, कुपित हुई तुलसीद्वारा विष्णु को शाप,
व्यासजी के पूछ्नेपर सनत्कुमारजी ने कहा – महर्षे ! रणभूमिमें आकाशवाणी को सुनकर जब देवेश्वर शम्भु ने श्रीहरि को प्रेरित किया, तब वे तुरंत ही अपनी माया से ब्राह्मण का वेष धारण करके शंखचूड के पास जा पहुँचे और उन्होंने उससे परमोत्कृष्ट कवच माँग लिया | फिर शंखचूड का रूप बनाकर वे तुलसी के घर की ओर चले | वहाँ पहुँचकर उन्होंने तुलसी के महल के द्वार के निकट नगारा बजाया और जय – जयकार से सुन्दरी तुलसी को अपने आगमन की सूचना दी | उसे सुनकर सती-साध्वी तुलसी ने बड़े आदर के साथ झरोखे के रास्ते राजमार्ग की ओर झाँका और अपने पति को आया हुआ जानकर वह परमानंद में निमग्न हो गयी | उसने तत्काल ही ब्राह्मणों को धन-दान करके उनसे मंगलाचार कराया और फिर अपना श्रुंगार किया | इधर देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये माया से शंखचूड का स्वरूप धारण करनेवाले भगवान विष्णु रथ से उतरकर देवी तुलसी के भवन में गये | तुलसी ने पतिरूप में आये हुए भगवान का पूजन किया, बहुत-सी बातें की, तदनन्तर उनके साथ रमण किया | तब उस साध्वी ने सुख, सामर्थ्य और आकर्षण में व्यतिरूप देखकर सबपर विचार किया और वह ‘तू कौन है ?’ यों डाँटती हुई बोली |
तुलसी ने कहा – दुष्ट ! मुझे शीघ्र बतला कि मायाद्वारा मेरा उपभोग करनेवाला तू कौन हैं ? तूने मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया है, अत: मैं अभी तुझे शाप देती हूँ |
सनत्कुमारजी कहते हैं – ब्रह्मन ! तुलसी का वचन सुनकर श्रीहरि ने लीलापूर्वक अपनी परम मनोहर मूर्ति धारण कर ली | तब उस रूप को देखकर तुलसी ने लक्षणों से पहचान लिया कि ये साक्षात विष्णु हैं | परन्तु उसका पातिव्रत्य नष्ट हो चूका था, इसलिये वह कुपित होकर विष्णु से कहने लगी |
तुलसी ने कहा – हे विष्णो ! तुम्हारा मन पत्थर के सदृश कठोर है | तुम में दया का लेशमात्र भी नहीं है | मेरे पतिधर्म के भंग हो जाने से निश्चय ही मेरे स्वामी मारे गये | चूँकि तुम पाषाण – सदृश कठोर, दयारहित और दुष्ट हो, इसलिये अब तुम मेरे शाप से पाषाण-स्वरूप ही हो जाओ |
सनत्कुमारजी कहते है – मुने ! यों कहकर शंखचूड की वह सती-साध्वी पत्नी तुलसी फूट-फूटकर रोने लगी और शोकार्त होकर बहुत तरह से विलाप करने लगी | इतने में वहाँ भक्तवत्सल भगवान शंकर प्रकट हो गये और उन्होंने समझाकर कहा – ‘देवि ! अब तुम दुःख को दूर करनेवाली मेरी बात सुनो और श्रीहरि भी स्वस्थ मनसे उसे श्रवण करें; क्योंकि तुम दोनों के लिये जो सुखकारक होगा, वही मैं कहूँगा | भद्रे ! तुमने (जिस मनोरथ को लेकर ) तप किया था, यह उसी तपस्या का फल है | भला, वह अन्यथा कैसे हो सकता है ? इसीलिये तुम्हे उसके अनुरूप ही फल हुआ है | अब तुम इस शरिरको त्यागकर दिव्य देह धारण कर लो और लक्ष्मी के समान होकर नित्य श्रीहरि के साथ ( वैकुण्ठ में ) विहार करती रहो | तुम्हारा यह शरीर, जिसे तुम छोड़ दोगी, नदी के रूप में परिवर्तित हो जायगा | वह नदी भारतवर्ष में पुण्यरूपा गण्डकी के नामसे प्रसिद्ध होगी